पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५७

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कारों की रचना में, जो कि पाण्डित्य का राव रखते थे। निश्चय ही पुरानी प्राकृत के पशिडद ये लोग रहे होंगे और प्राकृत-व्याकरण का ध्यान रखकर पद रखते होंगे। तृतीय प्राकृत ( अन्न ) जहाँ हिन्दी के रूप में आती दिखाई देती है।( “अपभ्रंश' अाँ हिन्दी की किसी “बोली' का रूप धार करता नजर आता है, } वहाँ भी उपर्यु खः प्रवृत्ति श्राप साहित्य में देख सकते हैं। महाकवि पुष्पदन्त का नाम इस लोग बहुत पहले से सुजदे अा रहे थे, जिन्हें किसी ने ‘पुष्य भी लिखा है। परन्तु इनकी कोई कृति उपलब्ध न थी । भगवान् भला करें हमारे राहुल सांकृत्यायन का, जिनके अलाधारण पुरुषार्थ से 'पुष्पदन्त की तथा अनेक सिद्धों की वाणी सामने श्राई । 'सिद्ध ऋवियों के अतिरिक्त अन्य भी बहुत से ऋदियों का पुनरुद्धार राहुल जी ने किया है । आश्चर्य अप करेंगे, इनमें से कितने ही समसामयिक कवियों की भाषा में श्रकाश-पाताल का अन्तर है। कुछ कवियों की या सन्तों की भाषा त ऐसी है, जिसे हम बहुत सरलता से ग्रहण कर लेते हैं और जो उच्चारण में भी हमें उद्वेजित नहीं करतीं । सुन्त, गोरख की वाणी ऐसी ही है। परन्तु दुसरे विद्वान् कवियों की भी बड़ी ही विचित्र है ! सहाकवि पुष्पदन्त व्या- करण देथा छन्दशास्त्र आदि के विद्वान् थे, अलंकार इत्र के भी ज्ञाता थे । वे कहते हैं---- दशा-णि किर समइ जाम, लहिं चिरिश पुरिस संपत्त ताम ! एणवेष्णुि तेहिं पत्तु एवं, भो खंड-गलिय पावावलेव ! क्या समझे ? राहुल जी ॐ द्वा; दुदित हिन्द-काव्य-धारा में ऐसी कविताओं का मजा लीजिए, यदि इच्छु हो । यहाँ अधिक उद्धर न दिए जाएंगे | पृष्ठों की बचत का ख्याल नहीं, पर मुद्रा के सुन झंझट बढ़ने का डर है ! ऊपर की दोन पंक्तियों की छाया राहुल जी ने यौं दी है--- नन्दनवन फुरि विश्रभै जहाँ, तब दोउ पुरुष अयेउ तहां ।। प्रमीया हिं कहेउ राम, हे खंड-लित-पापावलेप । कौन सी भाषा श्रापको सहज जान पड़ती हैं ? पुष्पदन्त का समय दसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है ! इनसे लगभग सौ वर्ष पहले की गोरख-वाणी देखिए--- जड़ी-बू का भावं जिनि लेहु, राज-दुअर पार्दै जिनि देहु ।। शंभन मोइन वसीकरन झांड्रौं श्रौदार, सुणौ हो ओगेसरी जोगारम्भ की बाट ।