पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(५१९)

चित् ‘विभाषा' कहा हो ! ‘विभाषा' झा भी कोई शब्द साहित्यिक भाषा ले लेती हैं; और कोई नहीं लेती । सामान्य रूप दोनों का एक है ही। जहाँ जरूरत हुई, पाणिनि ने कह दिया कि यह शब्द ‘विभाषा है। बाजारू हिन्दी है–‘मेरे को परवाह नहीं । बाजारू हिन्दी में मेरे को प्रयोग होता हैं' की अपेक्षा ‘थह बाजारू हिन्दी हैयह बाजारू प्रयोग है। कहने की अधिक चाल है। पाणिनि ने कदाचित् इसी लिए सर्वत्र विभाषा’ कहा, विभावायाम् नहीं । परन्तु साहित्यिक संस्कृत के दूसरे रूप के लिए गौरव के साथ अन्यतरस्याम् सप्तम्यन्त ( अधिकरण ) का सर्वत्र प्रयोग है। यो पाणिनि के विभाषा तथा अन्यस्थम्' शब्दों पर यह मेरी परिकल्पना है। इस पर विद्वानों को विचार करना चाहिए । कुट्टाचत् संस्कृत की इसी *विभाषा' का नाम आगे ‘पालि' पड़ गया हो ! “पल्ली से पाली'-“पालि शब्द जान पड़ते हैं, पंक्ति’ से नहीं । पंक्ति' से तो ‘पन्ति “पत' या पत्ति बन सकते हैं। ‘पल्ली' कहते हैं, साधारण गाँव को । “पालि' माधा-नागर या शिक्षित बर्गों की भाषा के विपरीत, अपढ़-कुपढ़ लोगों की भाभा । यों "पालि सृस्कृत की ही विभाषा” और “प्राकृत' इस से भिन्न । साधारण प्राकृत-भाषाएँ अन्य प्रदेशों की तरह उत्तर भारत में भी पृथक थीं, मगघ में भी । परन्तु पालि’ अपने रूप के कारण संस्कृत तथा साधारण (जन-विकसित ) प्राकृतों के बीच की चीज ! भगवान् महाज्ञीर ने और भगवान् बुद्ध ने अपनी प्राकृत में उपदेश दिए। जैन ने अपने मूल ग्रन्थ प्राकृत में ही रखे और टकसाली संस्कृत में भी आगे अपना प्रौढ साहित्य दिया | इस के विपरीत, बौद्धों ने ‘पालि' मैं अपना भूख्य साहित्य दिया; बुद्ध-वचन भी पालि' में कर दिए। बालि' इस समृद्धि से खूब बढी । परन्तु जैन-साहित्य इस बीच की भाग में नहीं; या तो प्राकृत में, या फिर उच्च संस्कृत में । प्राकृत के व्याकरण भी अने और उन व्याकरण के अनुसार फिर प्राकृत बनाई जाने लगी' ! आगे चलते-चलवे प्राकृत एकदम कर्णकटु और दुरुच्चार कृत्रिम भाषा बन गईं ! ‘पालि' में केवल बौद्ध-साहित्य था । साहित्यिक प्राकृत अप्राकृत हो गई ! यानी, उस समय उच्च संस्कृत तथा पालि' थे दो भाषाएँ, मूलतः एक ही भाषा की दो शाखाएँ, देश र में फैल रही थीं । तीसरी भाषा “प्राकृत' भी चल रही थी। यानी साहित्यिक राष्ट्रभाषा के रूप में यह त्रिवेणी चल रही थी !