पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५६५

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प्राकृतों की तीसरी अवस्था में--अपभ्रंश काल में एक लहर फिर राष्ट्रभाषा की उठी। इस समय देश भर में एक ही प्राकृत ( अपभ्रंश ) मैं सब लोग साहित्य-रचना करते थे । बिहार के बौद्ध सिद्धों की वाणी और राजस्थान की तत्कालीन साहित्यिक भाषा को मिला कर देखिए । न कहीं बिहार का कोई मौलिक तत्व • दिखाई दे गा, न वर्तमान राजस्थान का ही प्रस्फुटित रूप सामने दिखे गा । सब में एकरूपता है; परन्तु उस पर प्रादेशिकता की छाप जरूर है। बिहार के सिद्धों में बिहार की तत्कालीन भाषा की झलक कहीं है, तो राजस्थानी कवियों की भाषा में तत्कालीन राजस्थानी का पुट है। आज भी राष्ट्रभाषा हिन्दी पर जैसे प्रादेशिक भाषाओं की झलक कहीं आ जाए, उसी तरह समझिए । परन्तु वह देशव्यापी प्राकृत (अपभ्रंश) मूलतः किस प्रदेश की भाषा थी ? उस समय कन्नौज का राजनैतिक दृष्टि से महत्त्व था और किसी भाषा के देशव्यापी प्रसार में राजनैतिक महत्त्व भी कारण होता है। बहुत सम्भव है, उत्तरप्रदेश के इस मध्यवर्ती भाग ( कन्नौज, कान्यकुब्ज, या पंचाल ) की लोकभाषा ही उस समय देश भर की साहित्यिक भाषा बन गई हो, जिसे हम आज 'अपभ्रंश-साहित्य में देखते हैं ! इस के अलन्तर “ब्रजभाषा' देश में साहित्यिक सामान्य भाषा के रूप में फैली। बंगाल, पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात आदि सभी प्रदेशों के सन्तों ने व्रजभाषा में कविता की है। देश भर में अपनी बात पहुँचाने-फैलाने को वही साधन-माध्यम थी। इसी लिए मुसलमान साहित्यिकों ने उस समय ब्रजभाषा को ही ‘हिन्दवी, या “हिन्दी' नाम दिया है । उस समय व्रजभाषा हिन्दी थी और खड़ी बोली’ ‘अवधी' आदि उस की बोलियाँ ।। आगे चल कर मुसलमान शासकों ने दिल्ली-मेरठ की बोली ( खड़ी चोली’ ) को अपनाया और उर्दू नाम दे कर देश भर में फैलाया । यही उर्दू विदेशीपन छ’ कर आज 'हिन्दी' है--हिन्द की भाषा है और ब्रजभाषा आदि अब इस की “बोलियाँ हैं। इन्ही कुछ बोलियों का संक्षिप्त परिचय देने का यह उपक्रम है ।

'बोली' और 'भाषा'

'बोली' भाषा को ही कहते हैं । साहित्यिक रूप को ‘भाषा' कहते हैं। और जनहीत रूप को 'बोली' । हिन्दी की बोलियों में कई तो उच्च साहित्य से इतनी समृद्ध हैं कि संसार की समृद्ध से समृद्ध भाषा के सामने ऊँचा सिर