पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५६६

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उन का है । ब्रजभाषा और राजस्थानी का साहित्य जगजाहिर है । मैथिली के विद्यापति आदि अपनी साहित्यिक देन के कारण ऐसे महत्वशाली हैं। कि बंगाली लोग उन्हें अपनी ओर खींच रहे हैं, दूसरे अपनी श्रोर ! अवघी भाषा तो तुलसी के ही कारण संसार-प्रसिद्ध है। ‘रामचरितमानस ने अवधी को रूस, फ्रांस, इंग्लैंड आदि में भी पहुंचा दिया है। इतना महत्व इस देश की वर्तमान भाषाओं में शायद ही किसी दूसरी को मिला हो । जहाँ तक मैं समझता हूँ, किसी को भी नहीं । खैर, इम यहाँ साहित्यिक चर्चा न उठा कर केवल भाषा-चुंबन्धी ही कुछ परिचयात्मक कहें गे,। खड़ी बोली के क्षेत्र ( मेरठ-दिल्ली ) से लगा हुआ व्रज है और ब्रजभाषा ही किसी समय 'हिन्दवी' या हिंन्दी' थी। सौ, यहीं से हमें चलना चहिए। परन्तु व्रजभाषा पर जिन ( राजस्थानी, खड़ी बोली श्रादि ) का प्रभाव है, उन के बारे में कुछ समझ लेना पहले जरूरी है। एकरूपता और भिन्नरूपता हिन्दी की सब बोलियाँ तद्धितीय संबन्ध-प्रत्यय 'क' तथा 'के' विभकि की एफसूत्रता लिए हुए हैं और यही ऐसा तत्त्व है, जो इन सब (हिन्दीकी बोलियों ) को एक टोली में लाता हैं तथा हिन्द की दूसरी दूसरी बोलियों या भुषाओं से इन की व्यावृत्ति भी करता है। पहले यथास्थान इस कह आए हैं कि ‘क’ वद्धितीय संबन्ध-प्रत्यय है, जिस में बड़ी बोली की स्वड़ी पाई (पुविभक्ति) 'अ' लगा कर ‘राम को लङ्का' जैसा रूप प्रकट होता है। राजस्थान ( अलवर, कोटा, चयपुर-शेखावाटी आदि ) में भी कृ’ का चलन है । वहाँ पुर्विभक्ति 'ओ' लग जाती है-राम, तेरो, अपनो । अव में भी श्र’ पुंविभक्ति हैं। पूरबी अवधी, मगही भोजपुरी, मैथिली आदि भोलि में न 'आ' विभक्ति, न 'ओ' विभक्ति--केवल छ ।' न’ चलते हैं । पंजाबी में ‘क’ की जगह 'द' है, यद्यपि संज्ञाविभक्ति या पुंविभक्ति अ' ही है-राम दा मुंडा, राम दी कुड़ी-राम का लड़का, राम की लड़की । सो, ‘क’ की जगह 'द' रखने के कारण ‘हिन्द की यह बोली, हिन्दी की बोली नहीं है। गुजरात में संज्ञाविभक्तिं तो राजस्थान तथा ब्रज वाली ही'ग्रो है; पर 'क' तद्धितीय प्रत्यय नहीं ! इस की जगई वहाँ ‘न' हैं। महाराष्ट्र में 'च' हैं और बंगाल में र’ है ( विभक्ति-रूप से )---‘सीतार वनवास'-- सीता का बनवास । सो, क, १, न ये तीनो तद्धितीय संबन्ध-प्रत्यय जहाँ हैं,