पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(५२३)
पी’ धोयाधाई” जैसी चलती हैं । यदि समानार्थक या मिलते-जुलते अर्थ की धातु नहीं दिखाई देती, तो प्रकृत धातु द्विरुक्त हो जाती है-“ोवाधाई । सर्वत्र ‘ई भाववाचक कृदन्त प्रत्यय हैं। पूर्व खंड' का अन्त्य स्वर दीर्घ‘सोन' का ‘सोबा' 'आब' का 'अावा' और 'धोर’ की ‘धोवा' । 'घोडाघाई में द्वितीय ‘धोव” के व’ का लोप और ‘ओं को ‘अ’ हो गया है । "g पुरे हो, तो व’ का लोप हो ही जाता है—‘रावनु आङ्का’ और ‘सुलोचना

आई' । ‘अावी' नहीं । स्त्रीलिङ्ग क्रियाएँ प्राई “ई” आदि हिन्दी की सभी बोलियों में समान हैं—-जब कि पुल्लिङ्ग में----‘गया-यो' 'वा' या गा” आदि ! सभी जगह स्त्री-परिधान समान है, पुरुष-परिधान में अन्तर हैं । खैर, हम कह यह रहे थे कि राष्ट्रभाथा मैं धातु-रूप श्रादि हैं, अन्य सब बोलिंर्थों में श्राव' जैसे वफारान्त । परन्तु 'आवाजाई आदि प्रयोग राष्ट्रभाषा ने ('श्राव' आदि धातुझ से बने ) ले लिए हैं । कृमी-कभी संस्कृत का 'गमन’ लग कर *श्रावागमन भी चलता है-'आवागमन का सिद्धान्त प्रायः सभी भारतीय दार्शनिकों ने स्वीकार किया है। यहाँ अावाजाई नहीं दिया जा सकता । तू ने क्या बार-बार आवाजाई लादूर रखी है यहाँ *श्रआवागमन ठीक न रहे गा । हाँ, अपनी धातु से अपने रूप ‘श्राद्राजाना’ चलें गे ही-“क्या तू ते बार-बार आना-जाना लगा रखा है । परन्तु आवागमन में तो श्राव घातु ही चले गी । यहाँ राष्ट्राधा अपनी ‘श्र धातु रख दे, तो श्रागमन रूप हो जाएगा ! मतलब ही न निकले गा ! और अना-जाना उस रूद्ध शब्द ( वीरासन' } के लिए ठीक जमे गा ही नहीं। इस लिए, पाञ्चाली-अवधी श्रादि आवागमन हिन्दी ने ले लिया है । आवाजाई की ही टकसाले का अवागमन हैं। ब्रज में अव धातु है, पर ‘आवाजाई नहीं, ‘नो वान' वहाँ है ।। खड़ी बोली के क्षेत्र ( मेरठ-दिल्ली ) से सटा हुआ व्र-क्षेत्र हैं और उस से सटा राजस्यान हैं। मथुरा-आगरा आदि ब्रज में हैं। इधर दिल्ली और उधर जयपुर । पूरब में झन्नौजी बोली का क्षेत्र भी सटा हुआ है। कन्नौजी’ को ‘पाञ्चाल-भाषा' या 'पाञ्चाली' कहना अधिक ऋच्छा, जो कन्नौज से शुरू होकर अवध तक चली जाती है। यानी व्रजभाषा पर खड़ी बोल’ का, राजस्थानी को तथा फछ्वाली का प्रभाव पड़ा है। सच पूछो, तो इन तीनो भाषा का संगम-रूप प्रजभाषा