पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५६९

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है--त्रिवेणी। तीनो के मिश्रण से एक अलग ही मिसरी जैसी मीठी भाषा बन गई है-व्रजभाषा । | व्रज गोप-ग्वालों का निवास स्थान' । अवालियर में भी अवाल' शब्द छिपा हुआ है। किसी समय ब्रजभाषा को ग्वालियरी' ही कहते भी थे । बाद में ब्रजभाषा' शब्द को ही चलन हुआ । ग्वालियर से आगे फिर बुंदेलखंड आ जाता है। बुंदेलखंड की बोली या भाषा पर ग्वालियरी तथा पाञ्चाल’ को प्रभाव है। देश भर की भाषा इसी तरह एक दूसरी से अनुप्राणितप्रभावित हैं ।। यहाँ ब्रजभाषा के संबन्ध में कुछ कहने से पहिले यदि राजस्थानी तथा *पाञ्चाली' का स्वरूप देख लें, तो अधिक अच्छा रहे ग । तब ‘ब्रजभाषा का स्वरूप पूरी तरह से सामने आ जाए गा; क्यों कि उस में इनका सम्मिश्रण है। . ( क ) राजस्थानी का स्वरूप व्रज क्षेत्र ( आगरा-भरतपुर ) से सटा हुआ राजस्थानी का क्षेत्र है---जयधुर अादि। हमें उपलब्ध प्राकृत-साहित्य में भाषा का जो रूप मिलता है, वही राजस्थानी तथा गुजराती अदि का मूल जान पड़ता है। राजस्थानी तथा गुजराती में बहुत साम्य है। मीराबाई के कितने ही भक्षम-गीत गुज ती-साहित्य में उद्धृत किए गए हैं और उन गीर्वो की भाषा को वर्तमान गुजराती का प्राचीन रूप बतलाया गया है । राजस्थानी तो मीराबाई की है ही। इस हिसाब से राजस्थानी तथा गुजराती का विकास किसी एक ही प्राकृत से समझना चाहिए। साहित्य-प्राप्त प्राकृत' में संस्कृत अकारान्त पुल्लिङ्ग शब्दों में ( प्रथमा ) एकवचन के विसर्गों का विकास श्रो' के रूप में पुल्लिङ्ग--एकवचन मिलता है और राजस्थानी तथा 'गुजराती भी में ओकारान्त रूप देखा जाता हैं, अब कि खड़ी बोली तथा पंजाबी में श्रकारान्त ! यानी खड़ीचोली' ( हिन्दी-राष्ट्रभाषा ) का विकास जिस प्राचीन प्राकृत से है, उस में संस्कृत के पु० ( अकारान्त शब्दों के ) प्रथमाएकवचन के विसर्गों का विकास ‘’ न होकर श्रा' हुआ हो । विसर्ग *अ' के रूप में परिवर्तित देखे भी बाते हैं—उषः-उषा' | मिलती-जुलती वनि -यादह-ज्यादा आदि । परन्तु उस प्राकृत में साहित्य