पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५७०

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कदाचित् बना नहीं, या लुप्त हो गया । हम उस रूप की कल्पना हिन्दी को देखकर थोड़ा-बहुत तो कर ही सकते हैं । चीनी के स्वाद से कोई भी गन्ने के रस की कल्पना कर सकता है, जिसने कभी गन्ना देखा भी न हो। हम यहाँ नीचे उस प्राकृल के संभावित रूप देकर राजस्थानी का स्वरूप स्पष्ट करेंगे । संस्कृत, प्राकृत तथा राजस्थानी की पद्धति देखिए और खड़ी बोली' के लुस मूल का मिलान कीजिए एफुवचन बडुवचन पुत्राः गताः संस्कृत--- उपलब्ध प्राकृत - * राजस्थानी पुनः गतः पुचो गदो लङ्घको आयो बेड़ा गया संभावित प्राकृत–पुची गदा पुर्च गदे । खड़ी बोली-लड़का गया लड़के थे। एकवचन में ‘पुत्ता' तब बहुवचन में 'पुचे करना ही था । 'ई' हो नहीं सकती थी, क्योंकि हिन्दी की सभी बोलियों में स्त्रीलिङ्ग में ई रहती है। *उ' या ऊ' भी नहीं कर सकते थे; क्योंकि पाञ्चाली और अवघी अदि मैं एकवचन पुल्लिङ्ग में १ ' ओ' की जगहू } 'उ'-"क' रहता है । ऋ’ हिन्द्वी ऋये ग्राह्य भई। परिवा रहा ‘ए’ ! उसे ही हिन्दी ने बहुवचन में अहण कर लिया। संस्कृत में हैं ये 'के' “सन' आदि शब्द पुहिलङ-बहुचचन एकारान्त होते ही हैं। वहाँ से मी प्रेरणा मिली । सो, खङ्की बोली { कौरवी ), “कुरुचाङ्गल' की बोली तथा पंजाबी एक धारा में हैं। पुल्लिङ्गएकवचन-लडझा जाता है-'मुंडा खाँदा है' आदि। बहुवचन प्रकारान्त । परन्तु हिन्दी ने इस संज्ञा-विभक्ति की एकता पर ध्यान न दे कर बन्द-प्रत्यय ‘क’ को देख कर संबन्ध जोड़ा । जहाँ भी ‘झ' है, वह हिन्दी-परिवार, सुंझाविभक्ति चाहे ‘ा' हो, 'ओ' हो, 'उ' हो, था कुछ भी न हो । यों ‘वड़ी बोली’ को उद्गम भिन्न है, राजस्थानी का मिन्न । 'खड़ी बोली' ने ( ‘क’ न होने के कारण:) पंजाबी से मेल नहीं किया और राजस्थानी ने गुजराती से संबन्ध न छोड़ा; यद्यपि ' संज्ञा-विभक्ति की समानता है । गुजराती में नहीं, 'ना' संबन्ध-प्रत्यय है-राम भो'-राम का,