पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५८

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सीस नववत सतगुरू मिलिया, जारात रैण बिहाणी ।। भेरा गुरू दीनि छन्द गा३, | न जाणौं गुरू कहाँ गैला, मुझ नींदड़ी न आवै ।। गुदड़ी जुग च्यारि हैं आई, गुदड़ी सिद्ध-साधिवां चलाई ! गुड़ी में अतीत का बासा, गुंत गोरख ॐन्द्र का दास । निचली पंक्तियों में हिन्दी ( राष्ट्रभाद, खड़ी बोली ) की भी कुछ झलक है। यॉरख पुष्पदन्त से एक शताब्दी पहले और बाधा उनकी ऐसी कि श्री भी हम लोग सरलता से समझ लेते हैं। यही कार है कि गोरख की बाशी समझाने के लिए राहुल जी को प्रतिरूप पंक्तियाँ नहीं देनी पड़ी हैं। तो फिर इस भाषा-भेद का कारण क्या हैं ? वही सहज और कृत्रिम रूपों का प्रयोः ! गोरख सहज •जनभाषा में सब कुछ कहते हैं और दूसरे कवि' प्राकृत-व्याकरण टोलते हैं ! आजकल के हिन्दी व्याकरणों को पढ़ कर बहुत से अहिन्दीभाषी जुन्छ लिखने लगे थे—-राम ने तुम देखे ! जब उनसे कहा गया कि यह गलत हैं, म नै तुम देख’ सही हैं, तो उत्तर मिला कि आप गलत कह रहे हैं । हिन्दी व्याकरण' में हमने पढ़ा है कि सुकर्मक क्रियाओं के भाववाच्य प्रयोग नहीं होते हैं । श्रापका प्रयो। बालत है । इसी तरह प्राकृत-व्याकरण बने होंगे और उनका अनुगमन हुआ होगा। कवि जन तो आज भी भाषा बदल देते हैं । हिन्दी के रहस्यवादी काव्यों की भाषा देखिए और उन्हें जन-भाषा से मिलाइए। कितना अन्तर हैं ! इन काव्य को देख कर आगे के लोग इस समय की जन-भाष यही समझेंगे न ! और, थे महाकबि क्या ‘साधारण जन’ हैं ? बड़ा अन्तर है ।। और, यदि वह मान लिया जाए कि उपलब्ध प्राकृत-काव्यों में जो भाषा है, वहीं उस समय की जनभाषा थी, तो कहना पड़ेगा कि वैसी किसी प्राकृत से हिन्दी का कोई दूर का भी सम्बन्ध नहीं है। उस प्राकृत की अपेक्षा तो संस्कृत ही हिंन्दी के अधिक समीप है ! या फिर ऐसी कोई प्राकृत होगी,