पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५७१

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‘गुजरात नी’---गुजरात फी; आदि। वैसे राजस्थानी के साथ गुजराती की पटरी अच्छी बैठती है। गुजरात के पुराने लोकगीत में 'क' भी मिलता है । संभव है, यह उस सामान्य अपभ्रंश' का प्रभाव हो, जिसे हमने तत्कालीन “पाञ्चाली’ बतलाया है-- चॉन्च कटाऊँ पपैया रे, ऊपर कालो लूए । पिब मेरा, मैं पिव की रे, तू *पिव' कहै स ऋण ? यह गुजराती लोक-गीत राजस्थान के कितने समीप है ? एक तरह की ब्रजभाषा सी जान पड़ती हैं, इस लोकगीत की गुजराती !' चच गुजराती में भी चलता है । कटाऊ” “ऊपर ‘कालो’ :पिय’ ‘मेरा’ ‘क’ आदि समान हैं। ‘कू’-कौन | राजस्थानी में कुण' । इस लोकगीत की वर्तमान गुजराती यह है---‘पियु तो मारा छे, अने हुँ पियू नी छै । हुँ ‘पियु' शब्द बोलनारो को ए’ । इसी तरह | पपैया रे, पिव की वाणी न बोल ! सुणि पावे ली विरहिणी रे, थारी रालेली पाँख मरोड़ ! ‘पावेली-पावै गी' ( ब्रजभाषा--राजस्थानी ) । 'न’ को ‘या’ राजस्थान में बोला जाता है। ब्रज मैं ‘न' चलता है । हम राजस्थानी का व्याकरण नहीं लिख रहे हैं, न उस महनीय भाषा का स्वरूप-विवेचन ही कर रहे हैं। साधार परिचय देना है, हिन्दी की बोलियों में परस्पर एकरूपता तथा भिन्नरूपता बतलाने के लिए। | चुन्दबरदाई के 'पृथ्वीराज रासो' में तथा इसी तरह के अन्य प्राचीन अन्धों में भाध का जो रूप हैं, उसे हम ‘राजस्थानी नहीं कह सकते । सुम्पूर्ण देश में जिस तृतीय प्राकृत ( अपभ्रंश' ) को सामान्यतः साहित्यिक भाषा के रूप में ग्रहण-वरण कर लिया गया था, उसी में ये रासो' ग्रन्थ हैं। राजस्थानी की छाया स्वाभाविक है। नरपति नाल्डू राजस्थानी थे और इन की रचना ‘बीसलदेव-रासो' में राजस्थानी की कुछ विशेष झलक मिलल है सूणी सहेली कहुँ एक बात । म्हार फरकछ छुइ दाँहि गात् ।