पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५७२

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प्रतिलिपि से वर्ण-विन्यास में बहुत हेर-फेर हो जाया करता था । संभव है, 'सु' का ही ‘सूणी' कर दिया गया हो, ‘सृहेली' से मैल मिलाने के लिए ! कारण, खड़ी-बोली तथा ब्रजभाषा में ऐसी जगह वो ‘सुन है, वही राजस्थान में “सुण' है। आज्ञा-प्रार्थना आदि की क्रियाएँ साध्य'–रूप से *तिङन्त' हैं राम, सुन !’ ‘सीता, सुन !’ ‘सुहेर्न, सुणी' कुछ समंजस नहीं जान पड़ता ! यह भी संभव है कि जिस देशव्यापी साहित्यिक तृतीय प्राकृत का राजस्थानी से प्रभावित यह रूप है, उसे में सुलु' का मुणि' तथा *सुशी’ रूप समंजस हो; ठीक बैठ जाए ! कारा, कह कवन राम देखेंसि को कहु कवन राम देखेसि तो देखा ही जाता है; पर 8' का टू' में भी परिवर्तन व्यापक-रूप से है-“कहि तू फवन'–कृह, तु कौन है! सो, सुन, सुण, सुणु, सुणि, “सुणी? एक ही धारा के साथ्य’----(तिङन्त) क्रिया, रूप । सकते हैं; हैं । | ‘कहुँ’ का कहूँ” से कोई भेद नहीं है। एक बात बहुत साफ हैं। पांचाल-अवघी आदि मैं अकारान्त पुल्लिङ्क एकवचन में कहीं-कहीं अन्तु में उ’ दिखाई देता हैं और उस ‘सामान्य प्राकृत' ( अपभ्रंश ) में भी यह है, जिस की चर्चा ऊपर कई बार आई हैं। ‘रासो'-ग्रन्थ भी उसी सामान्य भाषा में हैं, कुछ राजस्थानी पुट के साथ | परन्तु एक बात' में एक को कभी भी ‘कु’ न हो गई; क्योंकि यह बात स्त्रीलिङ्ग का विशैथए हैं। हॉ, कहुँ एकु बचनु' में एकु' संभव है। म्हार' में जु' की जगह 'इ' स्वाईित्यिक रूप जान पढ़त्री हैं। जैसे ‘क’ का 'कहिँ' आदि। प्रकृत रूस ‘म्हार' है, जो सन्धि के द्वारा ‘म्हारो’ बन जाता हैं। जैसे 'है' का विलिष्ट रूप “अइह भी अवधी-ब्रजभाषा आदि के साहित्यिक रूप में हैं, उसी तरह *म्हारों' का म्हाउ'---हारइ' समझना चाहिए । वयं अलरी देने की प्रवृत्ति थी--‘भार’ को ‘महारा' भी रूप देखा जाता हैं। फरकः' भी *फरकै' का रूपान्तर है । “छइ' तो सष्ट ही छै' का रूप है; जैसे अहद्द' “अहै'। ‘दोहिणी गात स्पष्ट ही आज की राजस्थानी है। और भी--

देखि जठाशी, लागो छइ जेठ । मूखी कुंभिलाणो अति, सूकइ छुइ होठ ।। ‘देखि’ वही, ‘देखु’ झा रूप है। बठाणी' राजस्थान में आज भी बोला जाता है। छह साफ ही है। भूखी---‘मुख । सामान्य माषा में