पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५७३

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  • मुहुँ’ चलता था, जो अब भी पाञ्चाली तथा अवधी में है। वहाँ तद्र प संस्कृत शब्दों में भी भवनु’ ‘मन्दिरु’ अदि ‘उ' चलता है और इस की छाया ब्रज मैं भी आ पड़ी है। वही मुखु’----मुखि>मुखी-सूखी है। वैसे राजस्थान में मुख' से छु” स्वार्थिक प्रत्यय कर के मुखड़ो > मुहँड़ो> ‘मँडो’ भी सुना जाता हैं। आगे के पद स्पष्ट ही हैं।

परन्तु जब तक ‘गो'-गा'-गी' भविष्यत् काल की क्रियाओं में न मिल जाएँ, राजस्थानी को रूप नहीं माना जा सकता ! भाषा में क्रिया प्रधान होती है । इसी लिए ‘शैरसेन-'अपभ्रंश को जो लोग ब्रजभाषा का पुराना रूप मानते हैं, यानी जो ( साहित्य--दृष्ट ) 'शैरसेन-अपभ्रंश' नाम से प्रसिद्ध भाषा को वर्तमान क्रजभाषा का मूल मानते हैं, गलती पर हैं। ब्रजभाषा में पढ़े गो’ ‘पर्दै गे’ पढ़ गी' जैसे भविष्यत्-रूप क्रिया के होते हैं । यदि शौरसेन अपभ्रंश में गो गे’ ‘गी' प्रत्ययों से या प्रत्ययकल्प कृदन्तों से क्रिया के भविष्यत् रूप नहीं हैं, तो वैसा कहना गलत है। यदि व्रजभाषा के मूल रूप ( शौरसेन-अपभ्रंश ) में भविष्यत् की क्रियाएँ पढ़े गो' जैसे रूप में नहीं, तो फिर ब्रजभाषा में इतनी जल्दी ये कहाँ से आ गई ? किसी राजा ने आज्ञा दें कृर तुरन्त चला दीं ? यही 'ग' खड़ी-बोली में ( कुरुजाङ्गल में तथा पंजाब में भी ) है। इस व्यापक चीज की उपेक्षा भाषा-विज्ञान में नहीं की जा सकती । सो, ‘रासो'---ग्रन्थों की भाषा राजस्थानी से प्रभावित बुई विशिष्ट तृतीय प्राकृत ( अपभ्रंश ) है, जो देश भर में सामान्य साहित्यिक भाषा के रूप में किसी समय चलती थी। ठेठ राजस्थानी में सुन्दर कविताएँ आज बनती हैं, सुनने को मिल रही हैं । सुन कर तबियत फड़क उठती है। इस भाषा का उद्गम रासो'–दृष्ट भाषा से नहीं है। ( ख ) ब्रजभाषा अब हम इस स्थिति में हैं कि ब्रजभाषा पर कुछ कहें । यद्यपि ‘पाञ्चाली’ को भी रूम बतला कर,तब ब्रजभाषा का प्रकरण अधिक अच्छा रहता; क्र्यों कि उस का भी प्रभाव यहाँ ( ब्रजभाषा पर ) है; परन्तु हम ‘ग'–प्रभावित माक्ष्यों को एक जगह रखना चाहते हैं ! खड़ीबोली-“पढ़े गा' । रजस्थानी ‘पर्दै गो' । और अक्षभाषा मी 'पदै गो' । पंजाबी में भी पढ़ा है; परन्तु वह ‘कृ’-के से दूर है। इस लिए हिन्दी की बोली नहीं है। यों, ग’ कृदंत