पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५७५

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न्यानी ब्रज में पुल्लिङ्ग विशेषणों पर, क्रियाओं पर तथा जानो’ आदि भाववाचक संज्ञाम्रो पर राजस्थानी की स्पष्ट छाप है; परन्तु सर्वत्र बहुवचन प्रयोगों पर खड़ी-बोली का प्रभाव है। राजस्थान के प्रयोग साहित्य-दृष्ट द्वितीय प्राकृतों का अनुगमन करते हैं; परन्तु साहित्यिक तृतीय प्राकृत ( अपभ्रंश ) से कोई सामञ्जस्य नजर नहीं आता ।। | ब्रजभाषा में अव्य आदि अवश्य खड़ी बोली से पृथक् दिखाई देते हैं । *स्था' के लिए ब्रज में कहा अव्यय है-- होवे बहुत परिमान तौ, घटै मान बेतोल । देति कहीं नहिं, पै कहा, जग माटी कौ सोल । –तरङ्गिणी' 'इ' ब्रज में प्रायः ६३' हो जाता है; परन्तु कहीं खड़ीबोली का भी प्रभाव है--‘कृ’ ही रहता है उड्यो फिरत बिहरत बिहग, जिन की पाइ सहाय । ‘पर' न समझु तिन कौं अरे, कहा लगी तोहि बाय ! करु न निरादर लौंग कौं, एरे कुर कपूर ! तजि ६६ जौ संग तौ, उड़ि मिलि है कहुँ धूर ! --‘तरङ्गिणी त-प्रत्यय-युक्त क्रिया-पदों में 'ओ' पुंविभक्ति नहीं लगती, न ‘श्रा' ही दिखाई देती है; पाञ्चाली का '5' दिखाई देता है--‘पढ़तु है' ( पढ़ता है), ‘करतु है। { करता है । परन्तु साहित्यिक व्रजभाषा में यहाँ उ’ प्रायः उड़ा दिया गया है। ‘उड्यो फिरत’ को ‘उड्यो फिरतु' न हो गी । बहुवचन में तो 'उ' की कोई बात ही नहीं; क्योंकि वह पुल्लिङ्ग--एकचन की चीज है । स्त्रीलिङ्ग में “ति' हो जाता है, जब कि ‘खड़ी बोली में ‘ती’। 'आती हैं' की जगह ‘श्रावति हैं' और 'पीसती’ को पीसति पीसति गवति झूम झन्छु, घरनी सुधर रसाल ।। चन्दबदन अरुनित कछुक, कछु सम-सीकर भाल ! | + + + छरति ऊरहरी छबिभरी, धान छबीली बाम् । मनु व्याधिन के सीस ६, देति मुसल अविराम ! ---‘तरङ्गिणी