पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५७६

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‘ति के अतिरिक्त अन्य सब ईकारान्त छरहरी छबि-भरी' आदि । बहुवचन हैं' से ही प्रकट होता है। क्योकि 'त' प्रत्यय ज्यों का त्य रहता है-- फाटक दिल्ली-दुर्ग के, किए धका है भंग ।। तिन जाटने के छिलत हैं, अब खादी सों-अंग ! स’ को ‘स लिखने की गलत चाल है। इसी तरह 'राम-सो न रूप के “राम सौ न रूप' करना गलती है। वर्ष की बोली में ‘गयौ’ कोई भले ही बोल दे; पर साहित्यिक ब्रजभाषा में परम्पराप्राप्त मधुर 'ओ' ही ऋहीत है-“आयो बसन्त । आयौ बसन्त' में 'औ’ तो गोले से बरसाता है ! सूर अादि की परम्परा भी ‘श्रो' की ही है। हाँ, करै, पढ़ें आदि में है जरूर है। और ‘क’-पढौ आदि में 'श्री' भी है। परन्तु पुंबिमक्ति 'श्री' ही है-.. राम को रूप' 1 विभकि ‘’ को ‘क’ लय भी देखा जाता हैं—'तुमक तौ परी है परी की लला' । अनुनासिक 'क' में कटुता नहीं है। चित् पुंबिभक्ति भी ‘औं हो सकती है, यदि कटुता न आई। | ‘ताको कौन उपाय' में 'ओ' पुंविभक्ति है-ताको”–उस का । कहीं औ’ भी | देति छह नहिं मैं कहा, जग माटी कौ मोल ! ‘क’ तो होता ही है; कटुवा न हो, तो भी ! विशेषण में ‘अ’ पुंविभक्ति रहती है। सौ-सौ जन रंजन रति, जो प्यारी सतरंज । सोई अरी वियोग मैं, करति सौगुनो र ! --‘तरङ्गि’ | ‘सौंधुनो’ को ‘सौगुनौ’ ठीक न हो रा । 'योग' का ब्रजभाषा में होग” होता है; पर 'वियोग' को कभी भी ‘बिजोग' न हों गा; संयोग’ अवश्य ‘संजोग' बन जाती है। में' का 'मैं' के रूप में प्रयोग होता है । व्रजभाषा में 'ने' विभक्ति कर्ता-कारक में प्रायः नहीं लगती। मैं नाहीं दधि खायो' 'दाऊ मोहिं बहुत खिझायो’ आदि प्रयोग हैं। परन्तु आधुनिक ब्रजभाषा में ( खड़ी-बोली के प्रभाव से ) 'ने' का भी प्रयोग देखा जाता है।