पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५७७

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इलवर सँग गोपाल ने, कियो कंसमद चूर । मनौ कह्यो सासक जगत, हैं किसान मजदूर ।' •-“तरङ्गिशी' ‘है' के बिना भी ‘त' प्रत्यय से सामान्य निर्देश या वर्तमान काल कहा जाता है-- तरुनीरसृ-वंचित जु कवि, बरनत रससिंगार ।। विषय भनत ‘अनन्त'-पथ, दु अनन्त गॅवार ! -‘तरांझणी ‘दोन’ की जगह “दु' । व्रजभाषा तथा अवधी के साहित्य में दो के लिए विवभी आता है। दूसरो के अर्थ में 'बियो’ भी देखा गया। है। दोनों जगह ‘बिबि’ भी है--‘बिबि लोचन' । थे सब ‘द्वि' के ‘’ का लोफ कार के और ‘व’ को ‘ब्’ कर के हैं । साहित्यिक परम्परा की चीजें हैं ।। ब्रजभाषा में 'ष' तथा 'श' प्रायः नहीं चलता, सर्वत्र स’--- सेत-स्याम रति-काम ग, ते चख पुनि रतनार ।। चित्रित चीनी-चसक जनु, चाह-भरे गुलजार ।। --‘तरंगिणी” युनि' फिर, बाद में--तारुण्य आने पर । चसक-चषक । गुलजार’ ‘गुलाब' आदि शब्द व्रजभाषा में चलते हैं, पर 'चन्द्र' को रूप ‘चन्द' ही चलता है, चाँद' नहीं कलावन्त पर्-वस्तु लै, देत रुचिर निज रंगे । करत चाँदनी चन्द है, रवि-आतप लै अंग । -‘तरंगिणी ‘अर्थ’ अनर्थ जैसे रूप ब्रजभाषा में नहीं चलते; ‘अरथ” “अनरथ चलते हैं करत अटपटी बेतुकी, बातें अरथ-बिहीन ! लखत अनन्त, न तन्त कछु, हालाकला-अबीन ! अनन्त'–आकाश । शराबी चित पड़ा हुआ ऊपर ही देखता है ! ‘सुग्' आदि की चाल खड़ी-चोली की पद्धति पर ब्रजभाषा में है, राजस्थानी की पद्धति पर 'सुग्गो' न हो गः-- तराग