पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५७८

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सुग्गा पर-भाषा रटत, केवल चुग्गा-हेत ! ज्ञान मीन बिनु मूढ़ पुनि, परि बन्धन दुखलेत ! - ‘तरंगिरह परि—पड़ कर। ब्रजभाषा में यों इकारान्त पूर्वकालिक क्रियाएँ होती हैं। कह' आदि को पाञ्चाली-पद्धति पर कहु’ श्रादि हो जाता है:-- आलोचक कविता करै, तो यह जानौ भूल ।। माली मैं हैं कब लगे, कहु गुलाब के फूल है । सुरभि ‘कुछ’ को ‘कछु' या 'कळू हो जाता है-- होति खड़ी बोली ,खरी, ब्रजभाषा के जोग ! । ताक निन्दत भन्दमति, जिन तौननि कुछु रोग ।। • ---*तरंगिणी श्रवण-रोग से माधुर्य-आस्वाद का विरह । कछु’ को ‘छू भी हो जाता है—‘कळू न कळू है ।' पाञ्चाली में 'कुछ' या 'कुछू है। विशेषण जो खड़ी-बोली में पुल्लिङ्ग अकारान्त हैं, अब मैं ओकारान्त हो जाते हैं—सूखर पेड़-सूखो पेड़ । परन्तु बहुवचन उभयत्र समान रहे गई, ललन-अंग सूखे सबै, कहा पियावति चाह ! सखि, सो गोरस दीजिए, वा तन जाकी चाइ । -तरंगिणी *पित' की प्रेरणा ‘पियावति' हैं, पाञ्चाली-पद्धति पर ।। सो, ब्रज पर खड़ी-बोली, राजस्थानी तथा पश्चिमी पाञ्चाली का स्पष्ट प्रभाव है । शौरसेन’-अपभ्रंश नाम से सो भूबा हमारे सामने है, उससे ब्रज की बोली का कोई सामञ्जस्य नहीं बैठतः । उस अपभ्रंश से यह जम्मा एकदम कैसे निकल पड़ी ? ये ‘गो' 'ग? कैसे यहाँ या कूदे १ इतने थोड़े से समय में यह भेद कैसे हो गया ? सोचने की बात हैं । रसेन अपभ्रंश' से ब्रजभाषा का वैसा ही संबन्ध हैं, जैसा गौड़ ब्राह्मणों का “गौड़ ( बंगाल ) प्रदेश से ! सरयूपारी ब्राह्मण' सरयू नदी के उसपार रहनेवाले । “सारस्वत ब्राह्मण उस प्रदेश के, जहाँ सरस्वती नदी बहा करती थी । गोड