पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५९

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जिसमें वर्ण-संहार वैसा न हुश्च होगा । परन्तु उसका रूप अाज हमारे सामने नहीं है । इस प्राकृत में साहित्य न रचा गया होगा। परन्तु गोरख अदि की वाणी में कुछ झलक जरूर मिल रही है । उसी प्राकृत से हिन्दी की उत्पत्ति समझिए ! निश्चय ही बह कुरुजनपद की प्राकृत ( या जनभाषा ) संस्कृत से बहुत दूर न हटी होगी ! उसी का विकसित रूप हिन्दी है । ।

कुरुजनपद की जनभाधा

कुरुजनपद में प्राकृत का तीसरा रूप जो प्रचलित था, उसका नाम-रूप कुछ भी हमारे सामने नहीं है ! प्राकृत के ( दूसरी तथा तीसरी अवस्था के } जो भी रूप साहित्य में उपलब्ध हैं, उनसे हिन्दी की पटरी बैठती नहीं है। इन सभी प्रकृतों में वर्तमान काल की क्रियाएँ तिङन्त हैं; जिनमें कृर्ता के अनुसार पुलिंग-स्त्रीलिंग में कोई रूप-परिवर्तन नहीं होता । 'पिआ पुच्छइ' और ‘मा पुच्छइ' उभयत्र ‘पुच्इ है। यह संस्कृत के पिता पृच्छति माता पृच्छति' की छाया है। हिन्दी में रूप बदलता है—पिता पूछता है-

  • माता पूछती है। हिन्दी की यह विशेषता किसी भी प्राकृत में दिखाई नहीं

देती । जिस ( कुरुजनपदं की ) प्राकृत में यह बात थी, उसका कोई रूप हमारे सामने है नहीं । कई कड़ियों टूटी हैं। कुछ भी हो, साहित्य में उप- लब्ध प्राकृतों में से कोई भी ऐसी नहीं है, जिससे हिन्दी ( खड़ी बोली ) का उद्गम माना जा सके । हाँ, अवधी अादि का संबन्ध उनसे जरूर है। कुरुननपद की 'बोली' ब्रज की 'बोली' से बहुत मिलती जुलती है। दोनों पास-पास हैं न ! परन्तु दोनों में श्रीधारभूत भेद है और वह भेद इसके ‘खड़ी बोली' नाम से ही प्रकट हो जाता है।

खङी बोली” नाम

कुरुजनपद ( उत्तर प्रदेश के मेरठ-डिवीजन ) की बोली की खड़ी बोली नाम भाषाशास्त्रियों ने नहीं, साधारण साहित्यिकों ने दिया । परन्तु इसकी व्युत्पत्ति के बारे में लोग भटकते रहे ! प्रारम्भ में तो खड़ी बोली' नाम इसलिए पड़ा कि इसमें कवियों को मधुरता न जान पड़ी । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी इसमें खड़खड़ाहट पाई। जब दाल पकती नहीं, कच्ची रह जाती है, तो लोग कहते हैं--‘दाल खड़ी रह गई है। इसी सादृश्य से लोग इसे खड़ी