पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(५३५)


था ही नहीं और उसी साहित्यिक 'अपभ्रंश' से आगे चलकर थोड़े ही दिनों में बँगला, मराठी, गुजराती तथा हिन्दी की विभिन्न ‘दोलियाँ निकल पड़ीं ! करिहहि' या करि हैं' से 'करै गो' का निकल पड़ना जादू से कम नहीं है। यह भाषा-विज्ञान की चीज नहीं है। अभी आगे हम बताएं गे कि अपभ्रश’ साहित्य में भाषा का जो रूप देखा जाता है, वह कन्नौजी' या 'पाञ्चाली' का ही रूप हे गा । उसके अनन्तर देश ने व्रजभाषा को सामान्य भाषा के रूप में ग्रहण कर लिया । फलतः ब्रजभाषा ने उसे साहित्यिक 'अपभ्रंश' से बहुत-सी चीजें उत्तराधिकार में । बहुत से ऐसे शब्द साहित्यिक अवधी तथा ब्रजभाषा में हैं, जो *अपभ्रंश' के साहित्यिक रूप से आए हैं। श्राज श्री • हिंन्दी-ब्रोलि में वे ( शब्द् ) जन-प्रचलित नहीं हैं। जैसे 'दो' के लिए ‘बिवि' यः ‘र्षिय शब्द । बहुत से शब्द ऐसे हैं, जो कहीं जन-गृहीत हैं; घर उनका तात्विक अर्थ उड़ गया है, जैसे ब्रज़ को ‘दारी' शब्द । ब्रज में औरतों को गाली देने में ‘दारी' शब्द का प्रयोग श्राद्ध भी हैं; पर इस का तात्विक अर्थ लो भूल गए हैं-- ब्रजवासी भी भूल गए हैं । फलतः हिन्दी-कोशकारों ने *दारी' की व्युत्पत्ति “दासी' से कर दी है ! “दासी' से 'दारी कैसे बन गया ? अजीब बात है ! कभी ‘दासी' या 'बाँद' कह कर कोई उस तरह चली तो नहीं देता, जैसे ‘दारी' कह कर ! मुझे भी पता न था । परन्तु स्वामी हरिदास वै ‘ब्रा' पढ़ते-पढ़ते इस शब्द का अर्थ खुल य ! स्वामी हरिदास भगवान् की अनन्य-भक्ति का वर्णन करते हुए दिविध देवी-देवता की उपासना की निन्दा करते हैं और ऋहवे हैं कि दे इयास निन्दित है--ज्यों दारन में दारी' । “दारा' को रूप ‘दारन' है। जैसे सदृगृहस्थ स्त्रियों के बीच ‘दारी'; उसी तरह भगवान् के अनन्य मों में वह अनेक देवदेवताओं का उपासक । स्पष्ट ही ‘दारी' शब्द का अर्थ ‘वेश्या' पुंछली है । परन्तु यह अर्थ व्रज मैं भी अब भूल गए हैं। तो भी, केशकार के लो सावधान होना चाहिए ल ! इसी तरह ब्रजभाषा-साहित्य में अा हुथा 'शहर' संश-शुब्द है । 'सहर' (<शहर ) से बना ‘सहरी विशेष अलम हैं, स्पष्ट हैं ! इम ‘सरी संज्ञा का जिक्र कर रहे हैं। तुलसी ने द्रजभाषा में भी कविता की है । उन्होंने केवट के मुख से फइलाया है—पात भरी सहरीं'••। इस ‘सी’ शब्द का चलन अभी काशी के ही इधर-उधर देहात में है । और अमरकोश