पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५८७

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बोली' अपनी ‘अ’ पुंविभक्ति नहीं लगाती और न व्रजभाषा श्रो' लगाती है, वहीं पाञ्चाली अपनी 'उ' पुंविभक्ति लगती है--बाँस-बॉसु, आँगनअाँगनु छोर-छोरु, भोर--भोरु श्रादि। यह “उ” पुंविभक्ति तृतीय प्राकृत के आद्य रूप ( अपभ्रंश साहित्य ) में दिखाई देती है---
  • वदा दस बीसत्यु

कवतु किङ' ‘कृवगु गु अवगुणु' आदि। निश्चय ही ‘ा' तथा 'ओ' पुंविभक्तियों के क्षेत्र पृथकू हैं और प्रयोगक्षेत्र भी पृथका हैं। फलतः 'अपभ्रश?--साहित्य में इष्ट ‘उ' युविभक्ति पाञ्चाली की चीज है । इस' ने ब्रज को भी प्रभावित किया है; इस में सन्देह नहीं; पर ब्रज की अपनी पुविभक्ति 'ओ' है, “उ” नहीं। यह कह सकते हैं कि ब्रज के पूरबी छोर पर पहुँच कर ‘ओं संकुचित हो कर उ’ बन गया है। परन्तु *श्री' तथा 'उ' के प्रयोग-स्थलों की भिन्नता देखते हुए फहना पड़ता है कि 43' ब्रज की ‘अपनी चीज नहीं है। उ’ पुंविभक्ति -प्राच्य हिन्दी-बौलियों की चीज है, जिसे व्रज ने भी ग्रहण किया है; पर खड़ी बोली ने नहीं । *' का 'उ' से मेल है; पर “श्रा एकदम अलग है ।। इस 3' पुंविभक्ति के प्रयोग में बैसी नियमबद्धता नहीं दिखाई देती, जैसी कि तथा 'ओ' के प्रयोग में । भागे चलते-चलते ‘उ' घिस कर लुप्त ही हो गया है ! तो, जो बराबर छीज रहा हो, उस का क्या नियमन । आज' अव्यय है, उस में भी 3' लग जाता है--'आजु । यों, विध्यात्मक नियम बनाना तो कठिन है; एरे निषेधात्मक नियम दिया जा सकता है कि यह 'इ' स्त्रीलिङ्ग शब्दों में नहीं लगता और पुल्लिङ्ग बहुवचन में भी नहीं लगता। जामून' का 'जामुनु न हो गई और न 'कागजु' के बहुवचन में ही यह रहे गा–कगजन माँ का धरो है ! “सबै घर हमार दीख हैं । यहाँ ‘कमजनु” या “धरु रूप न हो गये । इल्ली लिए हम इसे ऍविभकि-एकवचन कहते हैं, भले ही कहीं अव्यय में लग जाए ! संस्कृत के तद्धितान्ति तथा कृदन्त अव्ययों में भी वो नपुंसकलिङ्ग-एकवचन होता है ! वही बात समझिए । आओ कि नाइँ अादि में 'ओ' व्रज को प्रभाव है। तुम श्री तौ यहाँ अश्रो मध्यम-पुरुष खड़ी बोली के अनुसार है, जो अावडु कृ सन्धि-रूप हैं वहु> आवळ>ो । 'गा’ ‘भा' जैसी अकारान्त भूतकालिक क्रियाएँ पाञ्चाली में और अवधी में समान हैं और इन के स्त्रीलि