पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५९१

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अनुमान की पुष्टि होती है। परन्तु भाषा में बड़ा अन्तर है ! सात-आठ सौ वर्षों में बहुत अन्तर पड़ गया है। वस्तुतः स्वयंभू के समय तृतीय प्राकृत का श्राद्य रूप ( 'अॅपभ्रंश ) था और उस से आधुनिक जनभाषा का विकास हो रहा था। आगे चलते-चलते अवधी का रू सामने आया। मलिक मुम्मद जायसी के “पद्मावत' में हमें इस भाषा का पर्याप्त विकसित रूप देखने को मिलता है। जायसी के कुछ ही दिन बाद गोस्वामी तुलसीदास के ‘रामचरिल-मानस' में अवधी का पूर्ण परिपाक हो गया-सुमधुर आस्वाद, मोहक रूप । निश्चय ही समुचित संस्कृत शब्दो के सम्मिश्रण से गोस्वामी जी ने अवधी के रूप को अधिक मोहक बना दिया हैं। 'पद्मावत' में यह बात नहीं है । | अपभ्रंश-काल में प्राकृत-व्याकरणों के नियम बाहित्यिकों पर हावी थे। वे उन व्याकरणों के श्रनुसार ही शब्द पढ़ते थे; “जानकी’ को ‘जःणई' या ‘जाणइ’ कर देते थे; भले ही जनभाषा में जानकी चलता रहे ! स्वयंभू को व्याकरण का बड़ा ध्यान थाः-- ‘तो कवणु गहणु अम्हारि सेहिं, वायरण-विहूणहिं आरिसेहिं । तो फिर हमारे जैसे व्याकरण-विहीन को कौन पूछे गा ! ‘वायरण-व्याकरण | यह विनय है; जैसे कि तुलसीदास का ‘कवि न होउँ नहिं चतुर कहाऊँ अादि । स्वयंभू ने संस्कृत का भी अच्छा पाण्डित्य प्राप्त किया था और ब्राणु, भरत, भाभह, दण्डी आदि के नाम ले-ले कर यह ध्वनित किया है कि मैं ने इन सब की रचनाएँ पढ़ी हैं । परन्तु अपनी रचना में तो उन्हें प्राकृत-व्याकरण का ध्यान रखना था ! कई बार व्याकरण में ऐसे नियम लोग रख देते हैं, जो लोक तथा साहित्य दोनो से उलटे जाते हैं ! यदि आगे के कवि अपनी भाषा व्याकरण-सम्मत' बनाने के लिए वैसा कुछ लिखें, तो उन का क्या दोष ? हिन्दी-व्याकरणों में एक नियम दिया रहता था-'हिन्दी में सकर्मक क्रियाओं के भाववाच्य प्रयोग नहीं होते हैं। इस नियम के अनुसार यदि कोई हिन्दी-कवि लिखे–“हम तुम बुला तो कैसा लगे ना ? प्रचलन तो भाववाच्य का है--‘इम ने तुम को बुलाया'; परन्तु व्याकरण इसे गलत बतलाए, तो बेचार कवि क्या करे ? उसे तो *व्याकरण' का ध्यान रखना है !