पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५९२

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सम्भव है कि स्वयंभू के समय जनभाषा का रूप वही रहा हो; यह भी कह सकते हैं । परन्तु कुछ ही दिन बाद फिर जाणई जानकी क्यों बन गई है कैसे बन गई ? गंगा फिर हिमालय पर कैसे चढ़ गई है इस लिए, अधिक संभावना यही है कि प्रचलित प्राकृत व्याकरणों का अधिक ध्यान रखने का ही फल वैसी भाषा है । परन्तु ‘कवणु’ ‘गणु' आदि में उ’ के देखने से इतना स्पष्ट है कि यह अवघी या पाञ्चाली को ही तत्कालीन साहित्यिक रूप है । एक ऐसी बात जरूर है, जो कुछ भ्रम पैदा कर सकती है। अवधी में भूतकाल की क्रियाएँ ने विभक्ति नहीं रखतीं । और, यह 'ने' विभक्ति संस्कृत 'बालकेन' श्रादि की तृतीया ( ‘इन’ ) के वर्ण-व्यत्यये तथा सन्धि-निष्पादन मैं सिद्ध है; यह इस पुस्तक में बतलाया गया है। स्वयंभू की कविता में संस्कृत की तृतीया विभक्तिं कृा अनुकरण हुश्रा है, जो अवधी-पाञ्चाली से उसे दूर हटा कर खड़ी बोली' के समीप ले जाता है ‘इन्देण समप्पिङ वाथरपु’ -इन्द्र ने व्याकरण दिया । ‘पिंगले छन्द्-पय-पत्थर -पिङ्गल ने छन्दों में पदों का प्रस्तार दिया । यह 'इन्देण’ ‘पिंगण' खड़ी बोली के ‘इन्द्र ने' तथा 'सिंगल ने के सुमीफ हैं। अवधी में प्रयोग इँ गे–इन्द समप्पेउ 'बायुरणु’ और ‘दिंगल छन्द-पय-पत्थारु समप्पेउ । किन्तु स्वयंभू की भाषा निश्चय ही खड़ी बोली' का पूर्व रूप नहीं है। यहाँ तिङन्त की प्रधानता है, जब कि खड़ी - बोली में कृदन्त की । “वायणु आदि का उ' भी सामने है। निश्चय ही इन्देण’ आदि में प्रयुक्त विभक्तियाँ उन्हीं व्याकरणों के कारण हैं, जो प्राकृत-भाषाओं के लिए बने थे और जिनका सिक्का इस काल के भी भाषा-कवि मानते थे | वैसे भी कवि-जन संस्कृत-विभक्तियों का प्रयोग क्वचित् कर जाते हैं। तुलसीदास के अवधी-काव्य में “लाहु सुखेन' जैसे प्रयोग देखे जाते हैं । ‘सुखेन'-( सुख से ) विशुद्ध संस्कृत-प्रद है, *प्राकृत-विकृत नहीं । प्राकृतों में तो संस्कृत-विभक्तिों की छाया चल ही रही थी। सो, ‘इंदेण’ साहित्यिक प्रयोग है। इस से भाषा की निर्णय अहीं हो सकता । एकाध ऐसे प्रयोग देख कर इसे खड़ी-चोली’ का पूर्व रूप नहीं कहा जा सकता ! तब तक खड़ी-बोली साहित्य के लिए गृहीत ही नहीं