पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५९३

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हुई थी । आज भी हम राष्ट्रभाषा में--कृपया यहाँ कूड़ा न फेंकिए' लिखतेबोलते हैं । यह ‘कृपया' संस्कृत की तृतीया-विभक्ति से युक्त पद चलता है, पर इस के कारण इस भाषा का विकास प्रचलित संस्कृत से न कह दिया जा गा । तुलसी की ‘सुखेन’ पद और आज की राष्ट्रभाषा का ‘कृपया आदि अव्यय' के रूप में यह गृहांत हैं, क्योकि वैसी विभक्तियाँ यहाँ हैं ही नहीं है। हम पीछे कह श्राए हैं कि कन्नौज के उत्कर्ष-काल में कन्नौजी “बोली को, यानी पाञ्चाली भाषा को देश ने सामान्य साहित्यिक भाषा के रूप में कदाचित् ग्रहण कर लिया था और इसी भाषा में वृह सब साहित्य लिखा गया, जो आज अपभ्रंश-साहित्य' के नाम से प्रसिद्ध है। ऐसी व्यापक भाषा में विभिन्न प्रदेश की छाया अः ही जाती है, जब वहाँ के साहित्यिक रचना करते हैं। इसी लिए 'अपभ्रंश-साहित्य' की भाषा एकरूप होने पर भी विभिन्न प्रादेशिक साहित्य-कृतियों में किञ्चित् भिन्नरूपता से दिखाई इस के अनन्तर जत्रे देश पर विदेशी शासन जमा और उन ( विदेशी शासकों ) का झाम इस देश की भाषा के बिना चुलना संभव न हुआ, तो दिल्ली और उस के इधर-उधर ( कुरुजनपद तथा कुरुजाङ्गल } की 'बोली' को उन्हो ने अपनाया; उसे अपनी ( फारसी ) लिपि में लिखने लगे और फारसी-अरबी के शब्दों के साहचर्य से काम चलाने लगे। इस नई राजकीय भाषा का नाम पहले ‘हिन्दुई 'हिन्दवी' आदि और बाद में उर्दू पड़ा । शासन के द्वारा देश भर में इस का प्रचार हुआ । आगे चल कर उर्दू एक परिष्कृत साहित्यिक भाषा भी हो गई; अच्छीअच्छी रचनाएँ इस में होने लगीं । हिन्दू जनता राजकीय भाषा के रूप में उर्दू को ग्रहण कर के भी उस के विदेशी रँग ढंग से उद्वेजिक्त थी और इस लिए दिल्ली के पड़ोस की (त्रज की) बोली की साहित्यिक भाषा के रूप में इस ने ग्रहण किया। उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान आदि ही नहीं, गुजरात, पंजाब, बंगाल तथा महाराष्ट्र आदि के भी महान् सन्तॊ ने और समाज-नेताओं ने ब्रजभाषा के द्वारा अपनाअपना सन्देश देश भर को दिया । यो हिन्दी के ये दो रूप देश भर में इस समय फैले-उर्दू के रूप में खड़ी बोली' और ब्रजभाषा के रूप में व्र, झी बोली । यह सब हम पूर्वपीठिका’ में विस्तार से कई आए हैं।