पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५९४

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इसी समय कुछ मुसलमान फकीरों ने अवधी भाषा में प्रेम-कहानियाँ लिखीं और अच्छी लिखीं । 'पद्मावत' आदि का बड़ा मान है। परन्तु इन प्रेमकथाओं का जनता में वैसा प्रचार में हुआ; क्योंकि वे लोग विदेशी ५ फारसी ) लिपि में ही लिखते थे और आदि-अन्त में इस्लाम-प्रचार का पुट देते थे और मुसलमानी शासन के प्रति अनुराग पैदा करने की प्रवृत्ति भी प्रकट करते थे। यों, वह पुरानी ( कन्नौजी या पाञ्चाली ) 'अपभ्रंश'-भाषा छूट गई और उर्दू, ब्रजभाषा, अवघी आदि का उदय हुआ । उस पुरानी भाषा की कोई-कोई निशानो अब तक इन नई साहित्यिक भाषाओं में उपलब्ध है। 'हि' विभक्ति तथा इस के संक्षिप्त रूप “इ” या श्रादि प्रायः सर्वत्र मिलें गे । रामहि कर्ता कारक जैसा अवधी में, वैसा ही झजभाषा में भी । ब्रज की बोली में राम कुँ' चलता है, जिस का परिष्कृत रूप साहित्य में राम ' है । परन्तु रामहिं’ भी टकसाली प्रयोग हैं । ब्रज फ़ी बोली में रामहिं' तो नहीं चलता; परन्तु सर्वनामों में 'हि' का अस्तित्व बराबर देखा जाता है । व्रज में बोलते हैं-मोय कहा परी है ?” “तोय कहा लेनो हैं-मुझे क्या पड़ी है, तुझे क्या लेना है । वृह मोथ' और तोय' कन्नौजी 'हि' विभक्ति से हैं । 'ह' का लोप और इ’ को ‘थ' । खड़ी बोली के सर्वनार्मों में भी विकल्प से 'हि' चलती है - मुझे-मुझ को, तुझे-तुझ को, इमें-हम को, तुम्हें-तुम से, इसे-इस को; आदि । ६' का लोप और | इसी तरह क्रिया-विभक्ति 'हि' का अस्तित्व सर्वत्र देख सकते हैं--प्रान -हहिं की जाहिं । 'ह' का लोप-प्रन रइई की जाई । सन्धि-‘प्रान हैं की जायँ । “खड़ी बोली में 'गुण-सन्धि होती है-'हे' ! अवधी और ब्रजभाषा में हैं। धातु के दीर्घ स्वर से परे ब्रजभाषा में 'इ' को प्रायः य' हो जाता है---‘जाय’ 'जाउँ । खड़ी बोली में ऐसी जगह 'इ' को ‘ए’ हो जाता है-*जाए बाएँ।। | जब, तभ, कब आदि सार्वनामिक अन्य सब जगह एक से हैं परन्तु *ही' आदि अन्य अव्यर्यों के साथ सन्धि श्रादि में अन्तर झा जाता है । कोई-कोई अव्यय ‘अपने अलग, भी हैं; जैसे अवघी में “बादि' । 'बादि अव्यय व्यर्थ के अर्थ में अवधी-साहित्य में चलता है; अन्यत्र नहीं। इसी तरह ‘चाहि' है, अपेक्षार्थक ।