पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५९५

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इस ग्रन्थ में पीछे बतलाया गया है कि संस्कृत के 'रामः' (पुं० एकवचन के विसर्गों का विकास ‘खड़ी बोली में खड़ी पाई (T ) के रूप में हुआ हैव्रजभाषा में यह शो' रूप से गृहीत है। ब्रजभाषा की परम्परा उपलब्ध प्राकृत साहित्य में विद्यमान है; परन्तु ‘खड़ी बोली' की कोई श्रृंखला प्राप्त नहीं है। जो' जैसे सर्वनामों में खड़ी बोली’ ने भी श्रो' ग्रहण कर लिया है। अवधी में न तो विसर्गों को ‘श्रो” के रूप में ही ग्रहण किया गया। न 'आ' के रूप में ही । “खड़ी बोली में 'मीठा पानी' और ब्रजभाषा में “मीठो पानी', परन्तु अवधी में मीठ पानी' । अलग मार्ग । परन्तु जो ‘सो' को जैसे अव्ययों में अवधी ने भी 'ओ' को अपनाया है। इन के बहुवचन में 'जे' ‘ते’ रूप हो जाते हैं । 'क' का रूप बहुवचन में 'के' ( साहित्य में ) कदाचित् न मिले ।। हिन्दी की सभी बोलियों में नपुंसकलिङ’ का पूर्ण बहिष्कार हैपंजाबी में भी । और, जो शब्द पंजाब में पुल्लिग चलता है, वह राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा बिहार आदि सभी क्षेत्रों में पुल्लिङ्ग ही मिले गा। 'रात' शब्द राजस्थान में भी स्त्रीलिङ्ग है और अवध में भी; यद्यपि ‘भात सर्वत्र पुल्लिङ्ग है । रात्रि से ‘रात' है; इस लिए स्त्रीलिङ्ग । ‘रातः बीत गईं। बिहार में रतिया हो जाए गा । बात' का बतिया' हो जाए गा | अवधी मैं सम्प्रसार करने की भी प्रवृत्ति देखी जाती है । व्रज में पीईं हलाहल नन्द के द्वारे’ चलता है; पर अवधी में ‘दुआरे' चलता है। ‘दू' के ब’ को ‘’ कर दिया-दुरे'। इसी तरह ‘प्यार’ को ‘पियार हो जाता है। ‘यू' को सम्प्रसारण (इ) कर देने पर ‘पिअर' शब्द बनती हैं, जो पुराने साहित्य में देखा भी जाता है । यहाँ विकल्य से इ’ को ‘इय् कर के पियार’ समझिए । इस के विपरीत, खड़ी बोली में प्राप्त 'इ' को भी कभी-कभी उड़ा दिया जाता है-*स्मार'<‘सियार' | अवधी में सियार ही चलती है । *शृगाल’ को ‘सिअार’ हुश्रा, ‘r' की लोप कर के; और फिर ‘इ’ को ‘इय्-‘सियार ।। अवधी में 'इ' को भी 'उ' कर देने की प्रवृत्ति है-'जाउ राज तौ जाउ'रान जाए, तो चला जाए । “जाहि तौ बाहि' । 'ह' का लोप-जाइ तौ चाइ । 'इ' को ‘य-जाय तौ जाय। इ’ को ‘ए’-‘जाए तो जाए इन सब प्रयोगों में एकजातीयता है । इ, उ, ए तीनो एक ही वर्ग के हैं--