पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५९६

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तालुस्थानीय । परन्तु अवघी स्थान की कोई परवा न कर के g’ को ‘उ भी कर देती है-'राज रहौ की जाउ'। 'अजस होउ जग सुजस नुसाऊ ( तुलसी ) । रहहि रहइ रहउ' और रहौं । मध्यमपुरुष-एकवचन ( श्राज्ञा-अनुनय आदि ) में आनेवाला 'उ' प्रत्यय भिन्न है । उस की निष्पत्ति ‘हु' विभक्ति से है---“करहु न पिय अभिमान' । “हु’ का लोप-“करउ' । सन्धि हो कर करौ’ और ‘खड़ी बोली में करो'। ऐसे प्रयोग इस बात के साक्षी हैं कि किसी एक ही मूल-भाषा के ये सब विकास हैं । ब्रज से आगे बँदेलखण्ड में भी ‘सम्प्रसारण' का चलन है—आवत हैं'> 'उत है। एक ही चीज भिन्न रूपों में हैं। | स्वयंभू की भाषा' देखने से पता चलता है कि तब्ब ढक भाषा का निखार न हुआ था । वहाँ सर्वनामों में स्त्रीलिंग-पुल्लिङ्ग भेद देखा जाता है। स्त्री के लिए वहाँ-कावि’ और पुरुष के लिए कोवि' देखा जाता है। ये संस्कृत ‘काऽपि तथा कोऽपि' के रूप हैं । परन्तु जायसी झी अवधी भाषा में सर्वत्र ‘कोउ मिले गा । ‘खड़ी बोली में ‘कोऽवि’ के बु’ का लोप और दीर्वान्त कर के कोई समान रूप से चलता है--कोई पुरुष, कोई स्त्री । परन्तु अबधी ने इ' को ' कर लिया है और सर्वत्र समान प्रयोग । स्वयंभू की भाषा में ‘वायरणु' जैसे उफारान्ते शब्दों की भरमार है; पर वायसी की भाषा में परिकार है। अनावश्यक ( चेचक के से दाग ) बायसी की भाषा में 'उ' के कहीं हैं। प्रमाण के लिए श्राचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल के द्वारा सम्पादित बायसी अंन्थावली देख सकते हैं । जायसी की भाषा से भी बढ़ कर सुसंस्कृत तथा सरस भाषा तुलसी के रामचरित मानस की है । परन्तु प्रतिलिपिकों ने तथा पण्डितम्मल्य सम्पादकों ने अपनी बुद्धि लड़ा कर इस सुन्दर भाषी को विकृत कर दिया है ! “रामु’ ‘लखनु’ विश्वामित्रु, वसिष्ठ, मानसु, आदि की भरमार कर दी है ! 'ठेठ अवधी' बनाने की सनक ! संस्कृत के पण्डित ने भी अपनी टाँग अड़ाई है। ‘लखन’ को ‘लघण' कर दिया है ! खैर, हम कह रहे थे कि तुलसी की अवधी भाषर भान्स' में परिष्कृत तथा नियमबद्ध है । हम यहाँ इसी का स्वरूप सामने रखें ये । सर्वनाम और विशेषण ‘सर्वनाम हिन्दी की सभी बोलियों में प्रायः एक ही हैं; परन्तु कुरूप भेद देखा जाता है । अवधी में मैंतू' दोनो ई; परन्तु 'मैं' के वजन पर “तें भी देखा जाता है---मैं अरु मार तोर हैं माया’