पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६०१

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ब्रजभाषा अदि में । भूतकाल की भी तिङन्त क्रियाओं में यही स्थिति हैकरेउ' करेसि’ अादि । ऐसी जगह 'इ' प्रत्यय भूतकालिक है, ति-पद्धति का । पुल्लिग-स्त्रीलिङ्ग में समान रूप रहते हैं । “कर' तथा 'इ' में सन्धिकरेउ । यहाँ ‘ए’ का बहुत हलका उच्चारण है । “वेद' अब पढ़ना' और अब वह काम अवश्य करना' जैसी भविष्यत् काल से युक्त विनय या अज्ञा की क्रियाओं की जगह अवधी में भी तिङन्त क्रियाएँ “करेउ” जैसे रूप में चलती हैं। भूतकाल के फरेउ” में ‘ए’ का हलका उच्चारण होता है और भविष्यत्आज्ञा की ‘करेउ' में स्थित ‘ए’ का गुरु या दीर्घ उच्चारण होता है ।। दे-ले’ को ‘दि’ ‘लि' हो जाता है और इउ’ को ‘ए’ हो कर है का अगम भी हो जाता है--दिहेउ' लिहे' । कर” को भी विकल्प से 'कि' होते देखा जाता है ---किहेउ । यह ‘दिया’ ‘लिया’ ‘किया' की झंकार है ! “ह' का आगम भाषा में बहुत प्रसिद्ध है। ‘क’ को ‘इक' हो कर पंजाबी में ‘हिङ्ग' हो जाता है। पढ़हि' आदि में चलने वाली हि' विभक्ति में भी ‘हे’ का आराम ही जान पड़ता है। ‘पठति' का रूप पढ्इ हुश्रा । *ति' के 'त' का लोप और ठ’ को ‘दृ' । इसी “इ” में “ह' का आगम हो गया-पढ़हि; करहि, जाहि । 'हि' विभक्ति बन गई । इस हि' को म० पु० एकवचन में सि’ हो जाता है—कहसि साँच किन बात -- तू सच क्यों नहीं कहती है इसी तरह दिहे' आदि समझिए । ‘पढ़इ' विधि के रूप में इष्ट ‘इ अलग चीज है । यह “पठेत्' आदि के *इय्' का अवशेष है । हिन्दी की प्रवृत्ति ही ऐसी है। ‘महान्' के 'न्’ को अलग कर के 'महा' विशेषण रख लिया । अवधी तथा ब्रजभाषा में भी 'महा' चलता है। सब कुछ स्वरान्त इष्ट है। सो, विधि का “इ” यहाँ इ’ बन गया-पढ़ई, करइ, जाइ आदि । दृद्धि-सन्धि हो कर पढे, करै। *खड़ी बोली में पढ़े “करे' । जाइ' आदि के 'इ' को व्रजभाषा में विकल्प से 'थ' भी हो जाती है। खड़ी बोली में भी लोग ‘लङ्का आ जाय लिखते हैं; परन्तु प्रवृत्ति *' की ही ओर है, जो कि सोए, रोए, धोए श्राए आदि से सृष्ट है। इम कह रहे थे कि कर' आदि का विकल्प से 'कि' आदि हो जाता है, भूतकालिक ‘इ3' प्रत्यय परे होने पर । सोएउ आदि में केवल 'इ' ही ‘ए’ के रूप में है। ‘गएउ आदि के साथ ‘गयउ' जैसे वैकल्पिक रूप भी चलते हैं-'४' को 'यू' कर के।