पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६०२

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यह तो तिङन्त भूतकालिक स्थिति हुई। कृदन्त में कर, दे, ले जैसी धातुओं को ‘कीन्ह 'दीन्ह' तथा 'लीन्ह' जैसे रू मिल जाते हैं । 'कर' श्रादि को 'क्वीन्ह' श्रादि देश हो जाता है । ये कृदन्त क्रियाएँ पुंस्त्री-भेद से रूप बदलती हैं-‘कीन्ह अनुग्रह’ और ‘दया कीन्हि' । यहाँ दिखाई देनेवाला ‘ह उस हि विभक्ति का अवशेष नहीं है । तिङन्त के भी कीन्हेउ' जैसे रूप बनते हैं | 'सो' 'कर' को कीन्ह' श्रादेश है । भूतकालिक ‘अ' प्रत्यय का लोप हो जाता है। अन्यत्र स्पष्ट दिखाई देता है—रहा, पढ़ा, लिखा आदि । कभी-कभी ‘देखिन्ह जाई’ जैसे भूतकालिक प्रयोग तुलसी ने किए हैं---‘देखिन्ह जाई’---जा कर देखा । प्रायः भूतकाल में पूर्वकालिक क्रिया के अनन्तर में ऐसे प्रयोग देखे जाते हैं। यह भूतकालिक ‘इन’ प्रत्यय है ----करिन'-किया । जिस धातु में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से “हु’ की सत्ता होती है, उस के ‘इन’ प्रत्यय में 'ह' अन्त में प्रायः आ जुड़ता है--अपनी बिरादरी का स्वागत समझिए। ‘न' के 'अ' का लोप‘कहिन्ह’ ‘पढिन्द' देखिन्ह' । तथा 'ख' में भी हू’ विद्यमान है। | सचार्थक अह' धातु का वर्तमान काल में ( ‘हि' बिभक्ति से ) 'अहहि' रूप होता है। इसी से अहइ' और फिर ‘अ’ रूप बने हैं—बनते हैं । इस अह' से भूतकालिक 'अ' प्रत्यय हो कर 'अहा’ रूप बनता है...अहाथी । इस ‘अहा' का प्रयोग ( ‘था' के अर्थ में ) श्री मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने ‘पद्मावत' में बहुत जगई किया है; पर तुलसी ने अहा' की राह छोड़ दी है---‘रहा' आदि का प्रयोग किया है। खड़ी बोली' के क्षेत्र ( मेरठ ) में जैसे ‘अ’ को ‘है' हो गया, उसी तरह ‘अहा' की वहाँ ‘हा हो गया । मैरठीय क्षेत्र में अब भी बोला जाता है-'एक राजा हा, एक रानी ही ।” पंजाबी में भी अहा’ मिलता है--‘था' के अर्थ में ।। जायसी ने ‘हता' का भी प्रयोग किया है । यह ‘हता' ब्रज के ‘तो’ का अवधी रूप है, जो कानपुर-लखनऊ के रास्ते आ गया है। यही ‘तो’ दिल्ली-मेरठ के रास्ते खड़ी-बोली में पहुँच कर ‘या’ हो गया है। हता; वर्ण-व्यत्यय ‘तहा’ और ‘त' के ‘अ’ का लोप, ‘त हा’---‘था? 1 ‘रहा' का प्रयोग शेष रहा' के अर्थ में भी है—‘रहा एक दिन अवधि अधारा ।' एक ही घातु का द्विधा प्रयोग है, या पृथक्-पृथक् दो धातुएँ हैं; यह विचारणीय है। *अहह' के अर्थ में रहहि नहीं देखा जाता । ‘रहहि-रहता है । ‘होगा' के अर्थ में रद्दिहि' या रहिहि भी नहीं देखा ज्ञाता। तो, क्या