पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६०३

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‘श्रहा' के पूर्व २’ का श्रागम हो गया है ? य र ल च इन चार वर्षों का प्रायः आगम हुआ ही करता है । यह विषय भाषाविज्ञानियों के लिए विचारणीय है । रहिहि' को हम ने भविष्यत् - काल का प्रयोग बतलाया है। ‘रहहि' इस से भिन्न है । *रहहि में रह’ धातु से ‘हि वर्तमान काल का प्रत्यय है। और रहिहि भविष्यत् काल में “इहि” प्रत्यय है । इदहि' प्रत्यय होने पर अकारान्त घातु के अन्त्य ( स्वर ) का लोप हो जाता है-'कर + इहि = *करिहहि’--करे गा, करे गी । यह इहहि' प्रत्यय तिङ्-पद्धति का है—पुंस्त्रीलिङ्गों में एक-सा रहता है । बहुवचन में प्रत्यय को अन्त्य स्वर अनुनासिक-- रहिहह” । एक जगह दो इकार श्रवणसुखद नहीं लगते; इस लिए प्रत्यय के प्रथम 'ह' का वैकल्पिक लोप---‘रहिहि । 'रहिहह' और रहिहि' एक ही चीज हैं—-रहे गा--रहे गी । जब लोप स्वीकार ही हो गया, तो अन्यत्र भी ‘करिहि’ ‘जाइहि” “इहि” । वकारान्त घातुओं के ‘व' का लोप हो जावा है-इहहिं या “इहि” परे होने पर | ‘श्राव'-'अाइहि”, “सोव--सोइहि” ‘जोव'-'जोइहि' आदि । वर्तमान काल में ‘व’ बना रहता है--विहि, सोवहि, जोवहि आदि । यह इहहि' प्रत्यय ही मध्यलोप कर के और ‘अ’ ८g' में सन्धि कर के ‘इई’ बन जाता है । अवघी में 'इहि” या “इइइ' और जरा पश्चिम चल कर ‘पाञ्चाली’ में मधुर रूप ‘इहै । कानपुर-कन्नौज आदि में बोलते हैं-'करिहैं' | ‘उइ कुछु करिहैं थोरै’----वे कुछ करें गे थोड़े ही ! वह को उहि । 'ह' का लोप-उइ । थोरा' और 'ही' में सन्धि 'थोरै'। व और य को अबधी में भी 'उ'--..-' तथा 'इ' को 'ए' होते देखा जाता है । अागे हम तुलसी के रामचरितमानस' से कुछ पद्य उद्धृत करें गे । वहीं ये सब चीजें स्पष्ट हो जाएँगी । | पञ्चाल और ब्रज मिले-सटे हैं। परन्तु तो भी न पञ्चाल ने करै गो’ लिया, न व्रज-जनपद ने ‘करि है’ लिया। परन्तु व्रजभाषा-साहित्य में 'इ'-प्रत्ययान्त भविष्यत् काल की तिङन्त क्रियाओं का प्रचुर प्रयोग है । कैवले पाञ्चाल के ही व्रजभाषा-साहित्य में नहीं, सूर-साहित्य में भी ‘इहै' प्रत्यय का खून प्रयोग है । वस्तुतः ‘कदै गो की अपेक्षा ‘करि है' में लाधव है, श्रुतिसुखदता भी है। परन्तु इकारान्त घातुओं से पुरे ब्रजभाषा-साहित्य के मर्मज्ञों ने इहै'