पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(५५९)


का प्रयोग बहुत कम किया है; ब्रज की कृदन्त क्रियाएँ ही रखी हैं। ‘रहिहौं की अपेक्षा रहौं गी' अच्छा प्रयोग है-हिन्दुश्नानी है रहौंगी मैं ।' तुलसी ने भी ब्रजभाषा-साहित्य में इहै' का प्रयोग किया है--- | लरि है मरिई करिहै कछु साको' । सो; कहहि' तथा 'कहिहि क्रियाओं में अन्तर है। दोनो तिङन्त हैं; . पर एक वर्तमान-कालिक, दूसरी भविष्यत्-कालिक ।। करहि के हु' का कभी-कभी लोप भी हो जाता है—करइ’। सन्धि हो कर ‘क’ भी देखा जाता है। परन्तु अधिकतर करहि जैसे प्रयोग ही वर्तमान काल में होते हैं । करइ' जैसे प्रयोग विधि-आज्ञा आदि में चलते। हैं। एक जगह “ति' का रूपान्तर है और अन्यत्र संस्कृत के ‘पठेत् आदि की 'इ' है । प्रसुंग से सब स्पष्ट हो जाता है । अवधी में 'ब' प्रत्यय भी भविष्यत् काल में आता है; पर इस का प्रयोग प्रायः उ० पु० बहुवचन में ही होता है-“करब ने पुनि अस काम ।' वकारान्त धातुओं के 'व' को उ हो जाता है-*पुनि श्राउब एहि बेरिया काली’। 'सोउब जु न राति ।” विधि-आशा आदि के मध्यम पुरुष--एकवचन में प्रायः 3' प्रत्यय होता है और अकारान्त धातुओं के अन्त्य ‘अ’ का लोप हो जाता ई-करु, सुनु, गुनु आदि। ‘कहु जड़ जनक धनुष केहि तोरा'-तुलसी । बहुवचन में ‘टु’ प्रत्यय होता हैं--करहु, सुनहु, गुनहु । हू' का लोप भी हो जाता है-करउ, 'सुन, गुनउ । इंस ( ‘हु के अवशिष्ट ) उ’ के परे होने पर अकारान्त धातुओं के 'अ' का लोप नहीं होता है । ‘क’ एकवचन और कुर’ बहुवइन । खड़ी बोली में एकवचन का प्रत्यय लुप्त हो जाता है---कर, सुन । ब्रजभाषा में बना रहता है-“करु न निरादर लौंग कौ, एरे कूर कपूर !' (‘तरंगिणी') ‘करउ' का ब्रजभाषा में कौ’ हो जाता है और खड़ी बोली इसे भी तराश कर करो' बना लेती है। इसी तरह प्र० पु० एकवचन का करई ब्रजभाषा में ‘क’ और ‘खड़ी बोली में करे’ रूप लेता है । बहुवचन में अनुनासिक---करई, करें, करें । अन्य धातुओं में-- जाहु, जा, जाओ जैसे रूप हो जाते हैं। | उत्तमपुरुष-एकवचन में हुँ तिङ-प्रत्यय प्रश्न-सम्भावना आदि में होता है-सुनहुँ, करहुँ, जाहुँ, वहुँ । कभी हु,' का लोप भी हो जाता है