पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६०५

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सुन, करउँ, जाउँ, अवउँ । व्रजभाषा में सन्धि हो कर--सुनौं, करों, *श्राव, जैसे रूप चलते हैं। खड़ी बोली में अकारान्त धातुओं के अन्त्य स्वर का लोप हो जाता है और प्रत्यय दीर्घ हो जाता हैसुनूं, करूँ, पहूँ । दीर्घान्त धातुओं के रूप----आऊँ, जाऊँ, पढ़ाऊँ, सुनाऊँ आदि होते हैं।

उन्दमपुरुष-बहुवचन में अवधी 'इ' प्रत्यय ही रखती है जो हम । जाईं—यदि हम जा । करई, सुनई आदि में कहीं-कहीं ‘ह भी लोग जोड़ देते हैं-- ‘करहिं’ ‘सुनहिं । प्रसंगानुसार वर्तमान तथा सम्भावना आदि का अर्थ स्पष्ट हो जाता है । सुन आदि के सन्धि-युक्त रूप ब्रजभाषा में ‘सुन जैसे चलते हैं; उसी तरह ‘सुनई' आदि “सुर्ने' जैसे रूप ग्रहण करते हैं। खड़ी बोली में ‘सुनें रह जाता है--“हम कुछ कहें-सुनें तब रोक देना ।। जैसा कि पहले कह आए हैं, ‘सुनेउ सुनेहुँ। जैसे रूप भूतकाल के हैं। ‘सुनेउँ उत्तमपुरुष–एकवचन । मध्यमपुरुष एकवचन में सुनेहु’ रूप होता है । “सुनउ’ ‘सुनउँ तथा सुनहु’ वर्तमान काल के रूप हैं। इसी तरह ‘होहि वर्तमान काल, “होइहि भविष्यत् काल है । 'अहि *अह’ (<अस ) की रूप है, सच्चा मात्र का कथन; परन्तु ‘होहि हो' का रूप है। राम विद्वान् है ( ‘अहहि' ) और कोई भी पढ़-लिख कर विद्वान्, होता है ( ‘होहि' ), यों दोनो तरह के प्रयोगों में अन्तर है । भविष्यत् काल में *अह' का प्रयोग नहीं होता, 'हो' का होता है । खड़ी बोली में भी यही स्थिति है, जो संस्कृत का अनुगमन है। वहाँ भी भविष्यत् काल में 'अस् को नहीं, ‘भू' का प्रयोग होता है--‘भविष्यति'--'हो गा'। पहले से विद्यमान वस्तु का कथन अस् था ‘अ’ से होता है। भविष्यत् में होनेवाले की क्या ससा ! इसी लिय् ‘हो' का प्रयोग | पहले विस्तार से कह आए हैं कि 'हो' का विकास ‘भू' धातु से है। संस्कृत में 'असू भुवि तथा ‘भुवि सत्तायाम् लिखा है जरूर; परन्तु इन दोनो ( ‘असू तथा “भू’ ) के अर्थों में भेद है। अस्ति--है और भवति----होता है। इसी लिए भवति' का अर्थ *उत्पद्येत' भी है। | अहिं' मी तरह करहि अादि तिङन्त प्रयोग तो अबधी में होते ही हैं। साथ ही कृरत', रहत' जैसे कृदन्त प्रयोग भी होते हैं। स्त्रीलिङ्ग में करवि