पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६०६

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रइति' जैसे रूप हो जाते हैं। विशेषण तथा क्रिया-विशेषण की तरह भी कृदन्त प्रयोग होते हैं। ऐसे प्रयोग कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य तथा भाववाच्य; तीनो घद्धतियों पर चलते हैं ।। करिअ’ ‘जाइअ 'सोइअ” जैसे प्रयोग भाववाच्य भी बहुत देखे जाते हैं । ब्रजभाषा में करिय' जाइय' जैसे रूप रहते हैं। खड़ी बोली में 'य' का ‘ए’ हो जाता है—जाइए, कीजिए, लीजिए आदि। अवधी में “य्’ कभी उड़ भी जाता है, ‘अ’ मात्र दिखाई देता है---‘मजन फल देखिश्न ततकाला' । ‘जागते-सोते मैं तुम्हारी शरण में हैं' में पुंविभक्ति ‘अ’ को ‘ए’ हो गया है; जो अवधी में है ही नहीं । यहाँ ‘जागत सोवत सरन तुम्हारी' चलता है । प्रेरणा अवधी मैं प्रायः 'व' प्रत्यय से बनती है-पढ़>पढाव' और कर> ‘कराव' धातु-उपधातु । “पढ़ावहि करावहि' क्रियाएँ । भविष्यत् में “इहि” प्रत्यय प्रेरणा में नहीं देखा जाता; यदि आता भी है, तो 'व' का लोपर हो जाता है-“कराइद्दि'-‘पढ़ाइहि” आदि । भूतकाल में वही 'अ' प्रत्यय करावा, पढ़ावा आदि । 'देख' आदि की प्रेरणा में यहाँ ‘ए’ को ‘इ' नहीं होता; ‘ए’ ही रहता है; परन्तु उच्चारण १ ‘ए’ ) का बहुत हलका हो जाता है-'देखावा । 'र' का आगम भी विकल्प से-देखरावा' । दोनों तरह के प्रयोग होते हैं, जैसे खिड़ी बोली में दिखाया’ और ‘दिखलाया। | पूर्वकालिक क्रिया अवधी में 'इ' प्रत्यय से बनती है। अकारान्त घातुओं के अन्य स्वर का लोप हो जाता है--‘पढ़ि अवा–पढ़ कर आया, या “पढ़ अया। दीर्धान्त धातुओं के ‘जाइ' जैसे रूप होते हैं। लाइ’-जाकर ।। वकारान्त घातुओं के व’ का लोप हो जाता है, पूर्वकालिक *g सामने आने पर। “सोवहि' ‘अविहि” “पठवहि' आदि क्रियाओं की धातुएँ स्पष्टतः वकारान्त हैं । इन के पूर्वकालिक रूप-सोइ', 'इ', 'पठइ' जैसे होते हैंसो कर, आ कर, भेज कर । स्पष्ट है कि व’ का लोप होने पर जो धातु-रूप रह जाता है, उस के अन्त्य ‘अ’ का लोप नहीं होता-“पठ” “अँचइ' । * ब्रजभाषा में भी यही ‘इ' प्रत्यय है; पर वहाँ आगे के भी जोड़ देते हैं“पढ़ि कै' कृरि कै' आदि । सन् १६०० से ,१६०३ तक, 'सरस्वती' के ( इन तीन प्रारम्भिक वर्षों के ) लेख देखिए, तो अप को कर की जगह के भी मिले गा । श्राचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल भी उस समय ‘देख के जी के जैसे प्रयोग करते थे, जो स्पष्टतः ‘देखि कै ‘जाइ कै' की छाया हैं । आगे