पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६०७

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फिर द्विवेदी जी के हाथ में सरस्वती आई और उन्हों ने अपनी भाषा का रूप स्थिर किया-जा कर देख कर जैसे रूप स्थिर हो गए। अत्र के केवल ‘कर के आगे लगता है—‘कर के' । स्वयं द्विवेदी जी भी पहले ‘जा के लिखते थे । मतलब थहाँ इतने से कि अवधी में पूर्वकालिक प्रत्यय 'इ' है। ब्रजभाषा में “के भी लगाते हैं । तद्धित ( अवधी का ) अन्य ‘बोलियों की ही तरह है । जो' आदि से *जुङ आदि अव्यय भी समान और जब से' की तरह 'जब ते राम ब्याहि घर आए विभक्ति-प्रयोग भी उसी तरह है । ‘वाला' की जगई अवधी में हारा प्रत्यय है--विधि इरि सुम्भु नचाबनिहारे’ और ‘जग पेखन तुम्ह देखनिहारे । 'हा' को बहुवचन में “हारे है। स्पष्ट रूप से यहाँ खड़ी बोली की छायी है। देखने वाले-- *देखनिहारे' । अवघी में न’ को ‘नि' हो जाता है--'हार' प्रत्यय परे होने पर। यहाँ एक बात और कह दी जाए। अवधी में संस्कृत की ( उपसर्गसहित ) धातुओं को भी आत्मसात् कर लिया गया है । 'g' उपसर्ग और *विश' धातु को ‘प्रविस’ रूप बना लिया । “श' को अवधी में ‘स' हो ही जाता है और हिन्दी की अन्य बोलियों की ही तरह यहाँ भी सभी धातु स्वरान्त है, कोई व्यञ्जनान्त नहीं । सो, “प्रविश’ का “प्रबिस’ बन गया-प्रविसहिं सब नर-नारि' । तुलसी का प्रयोग है-‘प्रविसि नगर कीजिअ सब काचा' । *प्रविसि'–प्रवेश कर के।। | अवधी की कारक-विभक्तियाँ विविध कारकों में तथा संबन्ध आदि में लगने वाली संज्ञा-विभक्तिर्यों का परिचय भी संक्षेप में चाहिए । जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, विभिन्न प्रादेशिक प्राकृत भाषाओं के अतिरिक्त कोई एक ऐसी अखिल भारतीय या अन्तर-प्रान्तीय प्राकृत अवश्य थी, जिसे सब ने साहित्य का समान माध्यम बना रखा था। उसी प्राकृत की एक कड़ी वह है, जो हमें कविवर स्वयंभू के ग्रन्थों में और पृथ्वीराज सो' आदि में प्राप्त है। इस भाषा में 'हि' कारक-विभकिं व्यापक रूप से विद्यमान है ।, आगे चल करे जब प्रादेशिक भाषाओं ने-हिन्दी की विभिन्न