पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६०८

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बोलियों ने--पृथक्-पृथक् मार्ग ग्रहण किए; साहित्य में भाषा-भेद हुआ, तो भी वई 'ई' विभक्ति एकता के (प्रतीक ) रूप में सर्वत्र (न्यूनाधिक रूप में } बनी रही । आज भी ‘हि’ को हम सर्वत्र देखते हैं, परन्तु अवधी में यह बहुत व्यापक है । ऐसी कोई जगह नहीं, जहाँ 'हि' की पहुँच न हो ! कर्ता में, कर्म में, करण में, सम्प्रदान में, अधिकरण में और सम्बन्ध में; सभी जगह ‘हि चलती है । अपादान में नहीं दिखाई देती है; पर एकदम निषेध हम न करें गे ! इतनी व्यापक चीज, सम्भव है, अपादान में भी हो मेरी दृष्टि न पड़ी हो; या मुझे याद न पड़ती हो ! इस के उदाइरण तुलसी के बचनों में ही आगे मिले । 'हि' के अतिरिक्त अन्य भी कुछ विभक्तियाँ हैं---कहूँ जो कि सम्प्रदान में लगती है, कभी कर्म में भी । “सहँ अधिकरण में काम आती है । 'क' *केर' तथा 'कर' प्रत्यय संबन्ध में आते हैं। तद्धितक' तथा 'केर' के रूप भेद्य के अनुसार बदलते हैं। यानी 'क' तथा 'केर' संबन्ध-प्रत्यय हैं। यह सब उदाहरणों से स्पष्ट हो जाएगा। 'के' र 'ने' संबन्ध-विभक्तियाँ भी हैं। विभक्तियों का क्रम-विकास बताना व्याकरण का काम नहीं है; परन्तु तो भी ‘हि' बहुत ध्यान खींचती है । संस्कृत में ‘बालकैः तृतीया के बहुवचन में बनती है; परन्तु वेदभाषा में '‘बालकेभिः जैसे प्रयोग भी देखे जाते हैं । सम्भव है, “प्रथम-प्राकृत' में बैसे प्रयोग होते रहे हों, जो आगे दूसरी प्राकृत' में भी पहुँचने ही थे । यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते शब्द घिस-घिस कर दूसरे ही रूप में हो गए थे। विसग का अस्तित्व प्रायः समाप्त हो चुका था और ‘भ’ ‘ध’ ‘घ' श्रादि से ‘अल्पप्राण’ स्पर्श वर्ण लुप्त हो कर कहीं-कहीं 'ह' मात्र रह गया था। रामेभिः' का रामहि हो गया था। अनुनासिकता की वृद्धि । इसी हिं' के साथ ‘तो’ लगा कर हिंतो' एक संयुक्त विभक्ति भी बना ली गई थी -~-अपादान के लिए। द्वितीय प्राकृत की वह 'हिं विभक्ति तृतीय प्राकृत ( अपभ्रंश ) में आ कर पर्याप्त व्यवस्थित हो गई और अन्यान्य विभक्तियों के बदले इसी का सर्वत्र प्रयोग होने लगा | अवधी-साहित्य में अब तक वही स्थिति है। एक विशेष बात यह हुई कि एकवचन में ‘हिं' का रूप 'हि' निरनुनासिक कर लिया गया । अनुनासिक कर देने से जब बहुवचन बन जाता है-‘है-हैं' }; तब निरनुनासिक कर देने से एकवचन ठीक ही है ।। अवधी-साहित्य में विभक्ति-प्रयोग के बिना भी कारकों को स्पष्ट प्रतिपति