पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६११

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‘सभा' यहाँ गौण कर्म है। मुख्य कर्म में भी यही स्थिति है--‘तब रानी उठि दासिहिं देखा' । भाववाच्य प्रयोग है --‘देखा। दासी' के ‘सी’ को ‘सि । भाववाच्य कृदन्त क्रिया में कर्म विभक्तिक रहते हैं--‘तब तिन्ह महिं बोलावा’ | यहाँ ‘बोलावा किया भाववाच्य कृदन्त है। कर्म में ‘हि विभक्ति लगी है । “तब उन्हों ने हमें बुलाया-राष्ट्रभाषा । सर्वनामों पर कर्मत्व हो, तो 'हि' विभक्ति अवश्य रहे गी--- ‘तिनहिं कहा समुझाइ नृप

  • जिनहिं दीख तुम साँझ विभिन्न पर्यों की स्थिति अब गोस्वामी तुलसीदास, की वाणी में ही देखिए । जो कुछ अभी तक कहा गया है, वह ( और जो कुछ नहीं कहा गया, वह भी ) सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा ।

. मानस के कुछ उदाहरण । जानि सभय सुर भूमि सुनि, बचन समेत सनेह ।। गगन गिरी गम्भीर भइ, हरनि सोक सन्देह । *जानि? पूर्वकालिक क्रिया स्पष्ट है। सभय' सुरों का विधेय विशेष है, जिस का पूर्व प्रयोग हो गया है। सभय' विशेषण 'भूमि' का भी है । *सनेइ समेत' का प्रयोग समेत सनेह' है । ऐसे प्रयोग सर्वत्र यहाँ मिलें ये । ‘भई तथा ‘हरनी' को स्वस्थ हो गया है । *भा का स्त्रीलिङ्ग भई जैसे 'गा” झा गई । ई स्त्रीप्रत्यय आने पर पुंविभक्ति (r ) का हट जाना स्वाभाविक ही हैं । श्राव' बोलावा कृा ‘वा' लुप्त हो जाता है-*ई' 'बोलाई । खड़ी बोली में आया' का रूप “आयी भी होता है; पर यहाँ “बोलावा' श्रावा’ को ‘बोलावी'-'वी' कभी भी नहीं होता । “भइ' को सन्धि-रूप भै' भी चलता है । इरनि सोक सन्देह' पृथक-पृथक् ( असमस्त ) पद हैं । *सोक' तथा 'सन्देह को जोड़ने के लिए कोई अव्यय-मसाला भी नहीं । *सामथ्य से सब सिद्ध है। सुबन्ध-सूचन के लिए भी कोई प्रत्यय-विभक्ति नहीं है। आगे यही सब इसी तरह मिले गरे । | एक बार भूपति मन माहीं, भइ गलानि मोरे सुत नाहीं ‘भोरे सुत नाही' में मोरे' संबन्ध प्रकट करता है ऐसा, जिसमें विधेयता विवक्षित है। इस का रूप सदा ऐसा ही रहे गा–‘मोरे भूमि सभ्य । १