पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६१३

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खा-खेलार जस है दुइ करा ।

गा-गौरहु अब सुनहु गियानी; इत्यादि । खर( अक्षर ) से अखरावट' है । 'अक्षर-ज्ञान' से मतलब । इस अक्षरानुक्रम में छ, अ, ए की जगह मलिक साहब ने ‘न' लिखा है । “श की जगह ‘स' लिखा है और “थ' की जगह 'ज'। 'ष' तथा 'क्ष' की जगह ‘ख’ लिखा गया है । इस का मतलब यह कि वे वर्ण अवधी में नहीं चलते, जिन को ग्रहण ‘अखरावट' में नहीं है। परन्तु यह बात प्रायिक है। स्वयं जायसी ने ‘वियोगी' को सर्वत्र ‘बियोगी ही लिखा है--बिजोगी' नहीं । | ङ, ञ, ण, तो ‘अखरावट' में वैसे भी नहीं आ सकते; क्यों कि हिन्दी क्या, ( उस बुनावटी प्राकृत’ को छोड़ ) संसार की किसी भी भाषा का कोई भी शब्द इन अक्षरों से उपक्रान्त नहीं होता। 'मानस में हम 'ष' की भी स्थिति अनिश्चित पाते हैं ! कहीं 'घ' और कहीं ‘ख’ लिखा मिलता है। परन्तु ङ, ञ और ण का एकान्त अभाव है। यही बात ब्रजभाषा में है और यही राष्ट्रभाषा' के आत्म-गठन में । संस्कृत तत्सम शब्दों में ही इन की तथा श, ष, , ज्ञ आदि का प्रयोग होता है। परन्तु अवधी तथा ब्रजभाषा काव्य में वैसे तत्सम शब्द प्रायः गृहीत नहीं होते । फारसी आदि से आए तत्सम शब्दों में भी श’ काम आता है-- राष्ट्रभाषा में । परन्तु 'ढङ्ग’ ‘अर्जराट' सञ्जीर' जैसा लिखना एकदम गलत है। कहीं-कहीं ‘जग्य’ को ‘जग्थें' या ‘जग्यं भी लोग लिख देते हैं। | यह इबि बाँटि देहु नृप जाई; अथायोग जेहि भाग बनाई ‘वाइ’-‘बनाइ’ को ‘जाई-बनाई। साधारणतः कुर्ता और कर्म में यह रूप रहता है; विशेष—दशा में भी । हँ’ ‘महँ' 'कर' आदि विभक्तियों का विषय हो, तभी ‘एहि ओडि’ ‘जेहि अदि रूप होते हैं---‘एहि महँ'इस में; श्रोहि कहँ'-उस को; जेहिं कहँ-जिस को । विशेषण दशा में--- ते श्रावहिं एहि बाट अादि । संक्षेप में यह समझिए कि जिस स्थिति में