पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६१४

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खड़ी बोली' 'यह--ह' अादि को इस'-'उस' जैसे रूप में लेती है, उसी स्थिति में अवधी 'हि'--ओहिं करती है। इस तरह-एहि विधि और उस तरह’----‘देहि विधि' । जेहि' के साथ तेहि' और अन्यत्र ‘ओहि ।

तबहिं राउ प्रिय नारि बोलाईं; | कौसल्यादि सफल चलि आई कई प्रतियों में “बोलाई’-'आई' यों निरनुनासिक 'ई' का प्रयोग देखने में आता है, जो गलत है । बहुवचन में अनुनासिक प्रयोग होता है । खड़ी बोली में ऐसे कत-कारकों का रूप नारियाँ या ‘नारियों को होता है; पर अवधी में कोई परिवर्तन नहीं होता ! 'नारी’ को ‘नारि तो चौपाई बनाने के लिए है । मन्दिर महँ सबै राजहिं रानी' यहाँ भी ‘राबहिं क्रिया के बहुवचन से ही रानी' बहुवचन ज्ञात होता है। एकवचन-'राजहि रानी' हो गा । कभी-कभी कर्ता-झारक का भी अन्य स्वर ऐसी जगह अनुनासिक कर देते हैं--‘बृन्द बृन्द मिलि चलीं लोगाई ।' यह ‘धाई के साथ तुक मिलाने के लिए। ब्रजभाषा में भी ऐसी जगह निरनुनासिक ही प्रयोग होती है:--- गि लगै ब्रज के बसिबे महूँ, पानी मैं अगि लगावै लुगाई ! अनुनासिक लुगाई नहीं । श्रवधी में लोगों का स्त्रीलिङ्ग लगाई होता है। लोग' में 'ओ' पूर्ण वा दीर्घ उच्चरित है; पर लोढ़ाई में ह्रस्व या हलका है। वहीं इलफापन आगे बढ़ कर ( प्रब में ) ” हो गया है-“लुगाई ।। खड़ी-बोली में स्त्रीलिङ्ग–बहुवचन में हूँ लगता है, या फिर विकरण-‘नारियाँ-‘शनि, “रातिर्थी को’-नारियों को'। पुल्लिङ्ग इकारान्त ( खड़ी बोली में भी ) निर्विकार रहते हैं--‘तब कवि और राह घर ।' *अाए' से 'कवि' ( कर्ता ) का भी बहुत्व स्पष्ट है। राष्ट्रभाषा में भी कभी-कभी ईकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्द बहुवचन ‘ओं के बिना होते हैं-वह दस रोटी खा गया'-'मुझे चार पूड़ी दे गया था । अरघ भाग कौसल्यहि दीन्हा; उभय भाग आधे कृर कीन्हा 'हि' विभक्ति सम्प्रदान’ में है और प्रकृति ( ‘कौसल्या') को छस्वान्त हो गया है। परन्तु ‘क’ का प्रयोग यदि सम्प्रदान' में होता, तब ह्रस्व न