पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६१७

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_______________ अधिकरण कारक में है। चरन' का बहुवचन ‘चरनन' और उस से आगे अहि' विभक्ति । सरबस दोन दीन्ह सब काहू; जेहि पावा राखी नहिं ताहू ‘सब काहू'—सब ने ही । “ताहू’---उसने भी । सभी ने सब कुछ दान कर दिया और जिस ने पाया, उस ने भी अपने पास नही रखा ! उस ने भी दान कर दिया । ‘काहू' और 'ताहू' पर विचार करना है। ये काहि-ताहि' के रूप नहीं हैं । हू' अव्यय 'भी' के अर्थ में आता है---अवधी में भी और ब्रज भाषा में भी । यहाँ वही हू’ प्रकृति के साथ सूट कर बैठा है। 'हि' विभक्ति परे हो, तो भी को, जो, सो को प्रायः को, जा, ता हो जाता है—काहि, जाहि, ताहि । केहि ‘जेहि तेहिं में भी 'हि' विभक्ति है । “जो आदि को ‘जे आदि आदेश हो गए हैं । काहि' आदि रूप कर्म-सम्प्रदान आदि कारकों में आते हैं। इसी तरह ‘जो जेहि जैसे रूप भी चलते हैं । इयर्थक धातुओं के साथ 'हि’ -विभक्ति कृत कारक में लगती है-ताहि न लागै नीक'—उसे अच्छा नहीं लगता | “ताहि' कर्ता ही है; यद्यपि ‘मह्यं दधि म रोचते' आदि संस्कृत-प्रयोगों में मह्यम्' श्रादि की गणना कर्ता-कारक में लोग नहीं समझते हैं। सोचने की चीज है कि जो पसन्द' या नापसन्द करता है, वह कतई नहीं, तो क्या है ? खैर, यह प्रासंगिक बात है। संस्कृत में जहाँ ( ऐसी जगइ ) चतुर्थी ‘मह्यम् आदि आती है, हिन्दी में को’ आदि आती हैं। अवधी आदि में ‘हि' लगती है—‘साहि' । परन्तु “तेहि भिन्न चीज है। ‘तेहि लागे न नीक प्रयोग भूतकाल में होता है। यह कर्मवाच्य प्रयोग है भूतकाल में ! ‘तेहि नीक न लाग’ ‘तेहि नीक न लागि' रूप पुल्लिङ्ग स्त्री-लिङ्ग कर्मकारों के अनुसार बदलें गे । | 'काहि’ ‘ताहि' में भी' का अर्थ नहीं है। काहू’ ‘ताहू' निर्विभक्तिक प्रयोग हैं । “ताहू'—उस ने भी । हू' के आगे विभक्ति लग सकती हैसम्प्रदान में ‘काहुहि'—किसी को भी । | वोह सुख सम्पति समय समाजा; | कहि न सकै सारद अहिराजा। पृथक्-पृथक् अन्वय है; इस लिए ‘सुकै एक वचन–'न सारद कर्छि