पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६१८

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सकै, न अहिरराज कहि सके । बहुवचन सुकैं प्रयोग कर देने से जोर कम हो जाला । ‘बोह' एकवचन भी इसी तरह-वई सुख, वह सम्पति, वे समय और वह समाज ।। | त्रिपाठी जी के द्वारा सम्पादित संस्करण से मैं यहाँ सब उद्धरण दे रहा हूँ। यहाँ ‘सो' का वोह प्रयोग है। 'सो' को बहुवचन ‘ते’ होता है। एकवचन में विभक्ति परे होने पर ( या विभक्ति के विषय में ) 'सो' को “ओह होता है-“श्रोहि महँ' । परन्तु यहाँ वोह' में ‘ब्’ भी है । यही ‘बोह” आगे चल कर 'वह' हो गया है। यहाँ ओह' तो आ ही नहीं सकता; ‘सो' भले ही हो । 'वह' और 'ओह' का संकर-प्रयोग 'वाह' हैं । “ओह' बना है ‘सो' के ही ।। कौतुक देखि पतंग भुलाना; एक मास तेइ जात न जाना तेइदेहि । उस ने एक महीना जाते न जाना ! जाना 'अ'-प्रत्ययन्ति भूतकालिक क्रिया है। ‘तेहि' के ह’ को लोप ।। यह रहस्य काहू नहिं जाना, दिनमनि चले करत गुने गाना | ‘काहू’-किसी ने भी । “हू’ अव्वय के साथ ‘को’ को ‘फ़ा हो गया है। ‘करत' भाववाच्य क्रिया है। ‘वाहू'—उसने भी । ने' अवधी में है। नहीं। इसी लिए–ताहू, फाडू। “ओह' के 'इ' झा लीप-“ओहू' उस ने भी। औरौ एक कह निज चोरी; | सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी | तोरी मति–तेरी मति । औरौ'--और भी । और हू। ब्रजभाषा में हो गा-औरहु' । अवधी में 'ह' का लोप और वृद्धि-सन्धि-औरौ' । यह सुभ चरित जान पै सोई; । कृपा राम के जो पर होई ६' अव्यय । पर यह चरित्र वही जान सकता है, जिस पर राम की कृपा हो । कै’-की। ‘सोई-वही । 'सो' के आगे यहाँ 'ही' अव्यय है । ६. का लोप और सटा कर प्रयोग-सोई-वही । “हू' के साथ-सोऊ’ होङ है—वह भी ।