पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६१९

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परमानन्द प्रेम सुख भूले;

बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले। | तुलसी ने ‘प्रेम’ को ‘पेम’ प्रायः नहीं किया है । परन्तु जायसी ने ‘पैम’ का ही प्रयोग किया है। इन दोनों में श्राधी शताब्दी से भी कम का अन्तर है; फिर भी साहित्य की भाषा में काफी अन्तरपड़ गया है । तुलसी ने था? के अर्थ में अद्दा' का प्रयोग नहीं किया है; पर जायसी ने बहुत किया है। जनता की बोली में इतनी जल्दी इतना परिवर्तन नहीं होता; परन्तु साहित्य की भाषा का तो परिष्कार होता है न | इसी लिए बहुत अन्तर पड़ जाता है। भारतेन्दु की भाषा और उन के बाद को भाषा देखिए; कितना अन्तर है ? भारतेन्दु के साथी, ही पे० प्रताप नारायण मिश्र की भाषा देखिए; कितना निखरी हुश्री रूप है ! प्रयोग का भेद है ।। हम आगे जायसी की भी कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करेंगे, तुलसी की भाषा से मिलान करने के लिए। परन्तु यहाँ कुछ विचार सामान्य पद्धति पर कर । लें, जो तुलसी तथा जायसी आदि सभी कवियों की भाषा पर समान है। उकारान्त प्रयोग अकारान्त पुल्लिङ्ग शब्द अवधी में तथा पाञ्चाली में प्रायः उकारान्त हो। जाते हैं । 'मानस' की रचना पश्चिमी अवधी या पूर्वी पाञ्चाली में है । तुलसी का जन्म पूर्जी पाञ्चाल ( बाँदा जिले ) में हुआ था । रामचरित' का अवध से संबन्ध और इसी प्रेम से मानस' की भाषा का नाम अवधी' । हमारा मतलब अकारान्त पुल्लिङ्ग शब्दों के इकारान्त प्रयोग से है। कारन' का कारनु हो जाता है; पर एकवचन में ही; बहुवचन में नहीं । स्त्रीलिङ्ग अकारान्त शब्द भी उझारान्त नहीं होता। 'रात’ कभी भी रातु रूप में न मिले गा, न खाट' का खाटु’ प्रयोग हो गा । स्पष्ट है कि यह पुल्लिङ्ग संज्ञा विभक्ति 'ओ' का संकुचित रूप ही है, यद्यपि इसे का प्रयोग उतना व्यवस्थित नहीं, जितना राष्ट्रभाषा में ‘ा' पुंप्रत्यय का और राजस्थानी तथा ब्रजभाषा में श्रो' का । 'ओ' का रूप ‘उ’ हो गया और आगे चलते-चलते वह भी घिस गया ! योनी पुल्लिङ्ग एकवचन में भी वैकल्पिक प्रयोग हो गया--कभी ‘उ' और केभी 'अ' । परन्तु निषेधार्थक नियम वैसा ही कड़ा है; यानी स्त्रीलिङ्ग शब्द के अन्त्यै ‘अ’ को ‘उ' न हो या और पुल्लिङ्ग-बहुवचन में भी न हो गई कसु वा हो गा; पर 'राकसु अाए न हो गा । यहाँ प्रश्न है कि