पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(५७५)


आदरार्थ जिन का प्रयोग बहुवचन में होता है, उन राम’ ‘लखन' वसिष्ठ आदि शब्दों को उकारान्त लिखना क्यों ठीक है ? तुलसी के हाथ की लिखी प्रति मिल नहीं रही है, जिस से कि असन्दिग्ध निर्णय हो सके । परन्तु बहुत पुरानी प्रतियों में भी रामु' जैसे प्रयोग मिलते हैं। तो क्या इन्हें प्रामारिक माना जाए? क्यों ? कैसे समझा जाए कि प्रतिलिपि सही हुई होगी ? तुलसी के पचास वर्ष बाद की बात जाने दीजिए, उन के सामने ही स्थानान्तर में अन्यथा प्रतिलिपि क्या सम्भव नहीं है ? बहुवचन प्रयोग अदर में होता है । तच एकवचन ‘रामु' “दसरथु' श्रादि तुलसी ने प्रयोग किए हों गे क्या ? *सभा के संस्करण में भी इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया है, जिस का अनुकरण सब ने किया है। कारनु एकु' तो हो ; पर “कारनु चारि नहीं हो सकता । तब बहुवचन में 'रामु’ ‘दसरथु' आदि कैसे १ विद्वानों के सोचने की बात है। हम इस पर कोई निर्णय नहीं दे रहे हैं । तुलसी ने चौपाइयों को अन्त्य गुरु करने के लिए जहाँ ह्रस्व शब्दों के भी दीर्घान्त प्रयोग किए हैं, वहाँ पुल्लिङ्ग-स्त्रीलिङ्ग का पूरा ध्यान रखा हैं । पुल्लिङ्ग शब्दों को था तो ऊकारान्त कर दिया हैं-सेवक-सदन स्वामिआगमनू और या फिर अकारान्त कर दिया है । गमन> >) गवना आदि । ३' अवधी की पुंविभक्ति और 'अ' राष्ट्रभाषा की पुविभक्ति । इन्हीं का दीन्हो प्रयोग किया गया है। अन्य किसी स्वर का दीधान्त अञ्जोय इस मतलब से नहीं हैं। पूर्वकालिक क्रिया जाईं आदि दूसरी चीज है । यहाँ यह भी ध्यान देने की बात है कि राष्ट्रभाषा की 'अ' तथा ब्रजभाषा की 'ओ' पुंविभक्ति से अवधी की इस 'उ' झी प्रयोग-विधि भिन्न हैं। भाववाचक संज्ञाएँ ‘लागना-जागन' वहाँ हैं, पर यहाँ ‘बागनु नहीं । वहाँ पानी मीठा' या मीठो’ होता है; पर यह मीठु नहीं । यहाँ कसु’ होता है; पर वहाँ कसा' या राकसो नही । ‘ए’--ओ' का हुलका उच्चारण अवघी में भी पाञ्चाली की तरह ‘' तथा 'ओ' स्वरों के द्विविध उच्चारण हैं-दीर्घ और ह्रस्व । “एकु' में 'ए' का पूरा या दीर्घ उच्चारणं है; परन्तु *जनु एतनिय बिरंचि करतूती' में ” को ह्रस्व उच्चार है । राष्ट्रभाषा में “इतना' और अवधी में एतना' । यहाँ ह्रस्व ‘ए’ है; जिस के लिए सभइ