पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६२

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एकदम न रहे, यह सम्भव नहीं है । “आता है? जाता है क्रियाओं में वह अनिवार्यतः रहेगी । तब फिर बहुवचन श्रोते-जाते होंगे ही। ऐसी स्थिति में लड़के आते; बछड़े जाते दोनों जगह '८” कितने अच्छे लगते हैं । संस्कृत से सीधे ही हिन्दी ने यह खड़ी पाई निकाल ली हो, ऐसा नहीं है । प्राकृढ फी दूसरी-तीसरी अवस्था में कोई न कोई रूप ऐसा होगा, जो हमारे सामने इस समय नहीं है । जिस प्राकृत का विकास हिन्दी है, उसका साहित्यिक रूप हमारे सामने नहीं है। इसलिए नहीं कह सकते कि इसका प्रयोग कहाँ किस तरह होता था। परन्तु यह नहीं हो सकता कि युमा एकवचन का कारन्त रू; किसी भी प्राकृत में कभी न बनता-चलता रहा हो । यदि ऐसा होता, प्राकृत के किसी भी रूप में प्रथम कः एकवचन अकारान्त न बनता होता, तो हिन्दी को यह चीज कहाँ से मिलती है साधारण जनता संस्कृत नहीं पढ़ी होती कि वह वहाँ से कोई चीज किसी रूप में कर के निकाल ले ! तब उस दुर्ल प्राकृत में सुः' का रूप ‘सी’ होला होगा क्या ! तब फिर स्त्रीलिंग ‘सा' का रूप क्या होता होगा ? (पुल्लिङ्ग में ‘सा' और स्त्रीलिंग में *स' भत्रि की कल्पना करें, तो संस्कृत की दिशा से एकदम उलटा मार्ग नजर आता है-अटपटा जान पड़ता है। परन्तु हिन्दी ने वस्तुतः यही पद्धति अपनाई है। इसका खुलासा लीजिए। हिन्दी अपनी यह पुंविभक्ति संस्कृत के तद्रूप ( तत्सम ) शब्दों में नहीं लहाती-रास, प्रलाप, प्रभाव आदि ज्यों के त्यों रहेंगे । विशेषण भी मिष्ट जल’ ‘मधुर जल आदि तदवस्थ रहेंगे। इनमें हिन्दी कभी भी अपनी पुंवि- भक्ति न लगाएगी । परन्तु अपने’ तथा संस्कृत के रूपान्तरित करके अपनाए हुर ( तद्भव ) शब्दों में जरूर यह पुंबिभक्ति लगा देती है-मीठा पानी

  • कड़वा पहा' कसैला फल आदि । 'बालक' ज्यों का त्यों रहे, परन्तु

‘लड़का उस पुंबिभक्ति को छोड़ न सकेगा । ‘दण्ड’ हिन्दी में इसी तरह चलेगा, परन्तु इसका रूपान्तर जहाँ ‘इंड' हुआ कि हिन्दी ने उस पुंविभक्ति के रूप में अपनी मुहर लगाई और डंडा’ बना । दण्ड-प्रहार किया'- ‘डंडा मारा’ ! ‘इंड भी है, अग दीज-डंड सौ रुपया बहुत है—पूरब में । 'डेड’ को ‘डाँड़ तब कहते हैं, जब बहुत ही अन्याय से झटका जाए। ‘डेड’ को ‘डंडु' भी बोलते हैं; पर डंडा' सर्वत्र इसी रूप में । इसी तरह कृदन्त में भी । हिन्दी ने नपुंसक-लिंद का झमेला हटा दिया है । संस्कृत में