पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(१८)

( १८ ) सामान्यै नपुंसक-लिंग होता है; हिन्दी में पुल्लिरा होता है--‘पठन’ बना कि संस्कृत ने अपनी विभक्ति लगाई---‘पठनम्' । हिन्दी में पढ़न’ हुआ और पुंविभक्ति लगी--पढ़ना, जाना, खाना, दीना, । समास में----'तिमंजिला, तिकोना, मुङमुंडा' आदि इसके रूप हैं । कृदन्त क्रियाओं में ‘कृत' का किय होते ही पुत्रिभक्ति ---किया' नजर आएगा। *खात सामने आते ही पुंवि- भक्ति खाता है ।। मतलब यह कि “आ” को हिन्दी ने अपने शब्दों में “पुंप्रत्यय के रूप में अश किया है, जब कि संस्कृते ने 'श्री' को प्रत्यय के रूप में अपनाया है। हिन्दी अपने आकारान्त पुलिग शब्दों को स्त्रीलिंग में ईकारान्त कर लेती है-

  • लड़का-लड़की” “मीठा-मीठी आता-आती इत्यादि ।

जैसे संस्कृत के तद्रूप ( तत्सम ) राम, मधुर, उज्ज्वल अादिं शब्द हिन्दी

  • ज्यों के त्यों लिंग में रखी हैं, उस तरह अकारान्त स्त्रीलिंग भी ज्यों के त्य

रखती हैं—लता, शिला, कृपा आदि । दूसरे क्षेत्र के नागरिक हैं ! मजे से अपने ढंग से रही और काम करो । परन्तु जब कोई शब्द 'शुद्ध' हो कर हिन्दी की बिरादरी में आ मिलता है, हिन्दी की ‘नागरिकता' स्वीकार कर लेता है, तब उसे यहाँ की रीति जरूर अपनानी पड़ती है। हिन्दी ‘अपने तथा संस्कृत के

  • शुद्ध’ किए हुए या तद्भव पुलिश शब्दों में पुविभक्ति के रूप में खड़ी पाई

लगाती हैं । खड़ी पाई यहाँ पुंस्त्व का प्रतीक है। तब स्त्री-प्रतीक क्या है ? खड़ी पाई को 'ई' कर देना । यह तो पुंसंबन्ध से स्त्रीत्व प्रकट करने की बात हुई, परन्तु जहाँ पहले ही स्त्रीत्व है, वैसे संस्कृत के तद्भव शब्दों की क्या व्यवस्था है ? तप शब्द तो 'लता' श्रादि ज्यों के त्यों रहते ही हैं, किन्तु जो स्त्रीलिंग ‘शुद्ध हो कर ‘तद्भव’ रूप हिन्दी में ग्रहण करते हैं, उनके उस 'अ' का क्या होता हैं, जिससे संस्कृत में ( और उपलब्ध प्राकृलों में भी ) स्त्रीत्व प्रकट होता है। यदि शुद्ध' ( तद्भव ) रूप में हिन्दी उस स्त्रीव्यंजक ‘ा' को बना रहने दे, तो पुस्-स्त्रीत्व की पहचान में बड़ी गड़बड़ी पैदा हो जाए, क्योंकि यहाँ तद्भव शब्दों में ‘अ’ पुंविभक्ति करके गृहीत-प्रयुक्त है। इससे हिन्दी सावधान रही है। आकारान्त स्त्रीलिंग संस्कृत शब्दों की शुद्ध' करके हिन्दी जब पूर्णतः अपनादी है, तब उसकी वह लम्बमानता हटा देती है-- द्राचा > दाख, खा> खाट, शिला>सिल, नासिका> नाईक, जिह्वा> ॥ श्रादि ।