पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६२१

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ने एक चिह्न बनाया है; पर वह तभी काम दे सकता है, जब , ( 'ओ' श्री' की तरह ) 'ए'-'ए' को भी ‘अ’ की बारहखड़ी से लिखें-तना'। इसी तरह जेतना’ और ‘अतना' आदि हैं । ‘श्रोस-बूंद' में 'श्रो' का पूरा या गुरु उच्चारण है; परन्तु इस से बनी नामधातु में हलका उच्चारण होगा--- ‘बिस्तर श्रोसान जाति है ! नियम यह बन सकता है कि अवधी में भी भूल शब्दों के 'ए' तथा 'श्रो पूरे या दीर्घ उच्चरित होते हैं; परन्तु ‘हि’ ‘महँ' आदि विभक्तियाँ परे होने पर, ‘श्रादेश’ स्थल में तथा यौगिक शब्दों में इन के उच्चारण हलके हो जाते हैं। संस्कृत में भी इन स्वरों को ह्रस्वता मिलती है; पर पूरी । थानी ‘ओ को 3' हो जाता है ,और ‘ए’ को ‘इ हो जाता है। यही स्थिति राष्ट्रभाषा में है--एक-‘इकट्ठा’ और ‘दो पइर'-‘दुपहरी' । परन्तु अवधी में 'ए'-'ओ' को पूरा नहीं, कुछ ही इलका उच्चारण होता है। इतना'-‘तना' और ‘उतना-ओतमा’ | यहाँ 'ए'-'ओ' का हलका उच्चारण है; क्योंकि ये मूलतः यहाँ नहीं हैं, 'यहवह' के बने रूप हैं । राष्ट्रभाषा में यह’ को ‘इ' और वह’ को ‘उ’ हो जाता है, तद्धित ‘तन' प्रत्यय परे आने पर; अवधी में हलके -ओ' हो जाते हैं—'एतना-ओतना' । इसी तरह एहि महँ’ तेहि महँ तथा जेहि' आदि में ८' ह्रस्व है। “तोहि' में 'तो' गुरु है; पर ‘ओहि महँ' में 'ओ' लघु है । ( ह्रस्व ‘ए’ 'ओ' का उच्चारण हलका बतलाने के लिए जो टाइप बनवाया गया है, इतना ‘सभा के प्रेस में नहीं है कि हम सर्वत्र उस का उपयोग कर सकें। समझ लीजिए । ) परन्तु कहीं-कहीं अवधी में भी पूरी ह्रस्वता होती है। 'दुश्रन्नी को ‘दोअन्नी' नहीं बोला जाता है; 'दुअन्नी' ही लोग बोलते हैं । पुल्लिङ्ग अकारान्त भूतकाल की क्रियाएँ भी समान हैं-आया-श्राई'‘ावा-आई । बहुवचन भी समान-आई। आवा' का बहुवचन भी राष्ट्रभाषा की ही तरह आए होता है; पर संज्ञा को एकारान्त नहीं करते--- ‘लरिका श्रावा'-लरिका आए । “जो लरिका कछु अनुचित करहीं। यही स्थिति पाञ्चाली में भी है। पूरबी पाञ्चाली में अवधी की तरह--‘लरिका श्रीवा' और पश्चिमी पाञ्चाली में 'लरिका श्रो' । परन्तु बहुबचन और स्त्रीलिङ्ग रूप एक समान । साहित्यिक अवधी का परिष्कार हुआ है। जायसी की भाषा में और तुलसी की भाषा में अन्तर है। स्वाभाविक बात है। १६०३ ई० तक की