पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६२२

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'सरस्वती' की भाषा देखिए और उस का मिलान १६१५ ई० की 'सरस्वती'भाषा से कीजिए । आकाश-पाताल का अन्तर मिले गा । ऐसा ही अन्तर जायसी और तुलसी की भाषा में है। स्पष्टता के लिए कुछ उद्धरण ‘जायसी के भी लीजिए।

‘पद्मावत' की भाषा जायसी का मुख्य ग्रन्थ 'पद्मावत' ही है। इस लिए इसी से उद्धरण लिए जाएँ गे ।। चितउर गढ़ कर एक बनिबारा; , सिंघलदीप चली बैंपारा । जनजारा'–वाणिज्यकार, व्यापारी । “एक' की जगह शायद इक' रहा हो, जो अागे प्रतिलिपिकों ने एक कर दिया हो। इसी तरह अगली पंक्ति में भी इक' ही ठीक बैठती है। अवधी मैं 'g' का हलको उच्चारण ऐसी जगह नहीं होता है । बाम्हन हुत एक निपट मिखारी; सो पुनि चला चलत बैपारी । 'हुत-हुता, था। भूतकाल के 'अ' प्रत्यय का वैकल्पिक लोप है । तुलसी लिखते-सोऊ चला चलत बेपारी'। वे बाम्हन' ने लिखकर ‘द्विज' जैसा कोई शब्द देवे । तुलसी यहाँ 'भिखारी' भी न रखते। 'भिखारी का व्यापार करना कैसा ! उसे रुपया भी कर्ज कौंन देगा ! “गरीब-दुखारी' वैसा सोचविचार कर सकता है। ऋन काहू सुन लीन्हेसि काढी; भकु तहँ गए होइ किछु बाढ़ी । प्राचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल द्वारा सम्पादित जायसी अन्याबली’ से थे उद्धरण दिए जा रहे हैं। 'ऋन कदाचित् जायसी ने न लिखा हो, 'रन' लिखा हो । फारसी-अक्षरों में लिखी प्रति पढ़ कर अपनी प्रवृत्ति से ऋन' लिख लिया गया हो ! अवधी तथा ब्रजभाषा में 'ऋ' की जगह प्रायः 'रि' का व्यवहार ही होता है। इरिन’ अवधी-व्रजभाषा को भी राष्ट्रभाषा में ‘उऋण' बना लिया गया है, जो अर्थतत्सम' रूप में चल निकला है।