‘मकु’ अव्यय का जायसी ने बहुत प्रयोग किया है। ‘मकु'-कदाचित् ।
“होइ’ सम्भावना है। काहू सन'—किसी से । “सुन’ विभक्ति का तुलसी ने भी खूब प्रयोग किया है । हू' अव्यय है ही।
मरिग फठिन बहुत दुख भएऊ;
नाँघि समुद्र दीप ओहि गएउ । ‘ओहि’ की जगह 'तेहि तब होता, यदि पहले ‘जेहि' आता !
देखि हाट किछु सूझ न ओरा;
सबै बहुत किछु दीख न थोरा देखि’ की जगह भी शायद भूतकालिक ‘दीख' ही रहा हो ! देखि को कुछ मेल नहीं मिलता। फारसी लिपि में लिखने के कारण बहुत गोलमाल हो गया है ।। । पै सुठि ऊँच बनिन तहँ केरा;
धनी पाव, निधनी मुख हेरा ।। ‘तहँ केरा’---वहाँ का । अधिकरण-प्रधान स्थानवाचक अव्ययों के आगे विभक्तियों का या संबन्ध-प्रत्यय प्रयोग हिन्दी की सभी बोलिथों में होता है ।
लाख करोरिन्ह वस्तु बिकाई;
सहसन केरि न कोउ ओनाई न ओनाई’-सुनता न था !
सब ही लीन्ह बेसाहना, औ घर कीन्ह बहर ।
बाम्हन तहँवा लेइ का ? गाँठि साँठि सुठि थोर ! | बेसाहना–सौदा-पत्ता । तहँ में वैकल्पिक स्वार्थिक वाँ' प्रत्यय । तुलसी को तहवाँ’ ‘जहँवा' आदि प्रायः पसन्द नहीं ।
झुरै ठाढ़ ‘सो काहे क श्रावा;
बनिच न मिला, रहा पछिताज़ा | झूरै' की जगह कदाचित् ‘झुरै’ रहा हो-सूख रहा था ! 'हि' का भूतकाल में प्रयोग है।
लाभ जानि एउँ एहि हाडा;
मूर गबाँइ चलेउँ तेहि बाटा !
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