पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६२४

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का मैं बोआ जनम ओहि पूँजी; खोइ चलेउँ घर डू कै पूँजी ! ‘बोआ' की जगह 'बो' कदाचित रहा हो ! ‘अ’-लुस प्रयोग अवधीसाहित्य में भरे पड़े हैं--‘कृ’--कहा; ‘अवि'-श्रावा; आदि । श्रोहि अविकरण-विभक्ति का विषय है। वह’ को ‘श्रोह' देश और 'हि' विभक्ति का 'इ'। “ह' के 'अ' झा लोप | अवधी में सर्वनाम-विशेषणों में विभक्ति लगती है—‘ओहि जनम-उस जन्म में । यों यह अवघी का आभास दिया गया | वर्तमान काल की ‘हहि क्रिया 'की तरह मध्यम पुरुष में ‘हहु’ भी देखा गया है-श्रहहिहहः अहहु-हहु । “इहि” से है ओरहहु से 'हो'; ब्रजभाषा में ‘हौ” और बँगला में 'ओ' का विकास स्पष्ट है ।। ( ङ) 'भोजपुरी’ और ‘मगही' । भोजपुरी बोली वहीं से शुरू हो जाती है, जहाँ ‘अवंध' छूटती है । काशी से पहले ही, जौनपुर जिले के पूर्वी अंचल में भोजपुरी का अस्तित्व 'प्रकट हो जाता है और आगे बिहार में बहुत दूर तक यही बोली जाती है; यद्यपि कुछ अवान्तर भेद होता जाता है। काशी-जैसे महत्वपूर्ण नगरों पर इस' का नाम न पड़ कर ‘भोपुरी' नाम क्र्यों पड़ा ! ‘भोजपुर' तो इधर कोई नगर कभी प्रसिद्ध रहा नहीं, न अङ्ग ही है ! कहीं कोई गावँ ‘भोजपुर हो, तो उसे ले कर इतनी बड़ी बोली का नामकरण विचित्र जान पड़ता है । बिहार में यह प्रवृत्ति देखी जाती है कि किसी व्यापक चीन के ऐसे नाम रख दिए जाते हैं। बिहार में शाहाबाद एक जिला है, पर शाहाबाद' नाम का कोई शुहर उस क्षेत्र में नहीं है। जिले का प्रशासन-केन्द्र श्रारा' हैं । परन्तु जिले का नाम 'शाहाबाद' है। इसी तरह छोटा नागपुर' है। इसी प्रवृत्ति के अनुसार भोजपुरी' नाम कदाचित् हो ! जो भी हो, ‘भोजपुरी हिन्दी की एक बहुत दूर तक बोली जाने वाली 'बोली' है। मेरठी' में जैसे पहले साहित्य नहीं बना, या बना हुआ लुप्त हो गया, वहीं बात इस भोजपुरी के बारे में भी है। जैसे पाञ्चाली में कोई साहित्य इधर के युग में नहीं बना, उसी तरह ‘भोजपुरी में भी नहीं बना ( पूर्वी पाञ्चाली तुलसी के ‘रामचरितमानस' को अपनी चीज कह ले, यह अलग बात है। बस्तुतः ‘मानस' पश्चिमी अवधी और पूर्वी पाञ्चाली के साझे की चीज है ।