पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६२६

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*' या ‘श्रो संज्ञा-विभक्तिर्यों की कोई स्थिति नहीं, कृदन्त प्रत्यय अपने असली रूप में रहता है; बहुत अच्छा विशेषण जान पड़ता है। राष्ट्रभाषा में तो ‘हुआ चलता है। नीचे प्रयोग देखिए

राष्ट्रभाषा छिला हुआ कसेरू, छिले हुए खरबूजे, छिली नारंगी । राजस्थानी छिल्योड़ो कसेरू, छिल्योड़ा खरबूजा, छिल्योड़ी नारंगी भोजपुरी छिलल कसेरू, लिलल खरबूजा, छिलल नारंगी । भोजपुरी में दो लो’ करो' आदि को 'दा’ ‘ला’ करा' जैसा बोलते हैं। 'अश्रो न !' की जगह 'श्रवा न ।' चलता है। यानी धातुरूप समान, पर प्रत्ययों में भेद । क्या करते हो' राष्ट्रभाषा में, का करत हौ अवधी-पाञ्चाली में और का करत हौ' भोजपुरी में । वर्तमान झाले की “है' की जगह है जर भारी कर के चलता है, जो ‘हौं' से मिलता-जुलता जान पड़ता है। लगभग यही उच्चारण ‘है' का कुरुजनपद में ( यानी राष्ट्रभाषा के उद्भव-क्षेत्र में ) भी है। बीच में सर्वत्र 'है' गृहीत है । इस से स्पष्ट है कि भाषा का विकास सर्वत्र स्वतंत्र रूप से हुआ है। छै’ राजस्थान में है, जो पड़ोस के सै' का रूपान्तर है। बीच में है और पर्वतीय क्षेत्र में फिर ‘छै'; कहीं-कहीं बँगला में भी । भौजपुरी में कोई वैसा साहित्य नहीं, इस लिए पाञ्चाली की ही तरह इस पर भी हम अधिक कुछ न लिखेंगे । बिहार की मगही । भोजपुरी से आगे बिहार की ‘मगही' बोली का क्षेत्र है और ( मैथिली के क्षेत्र को छोड़कर ) सम्पूर्ण विहार में यह बोली जाती है । भगही' शब्द स्पष्टत; ‘मागधी' को रूपान्तर है; परन्तु ‘मागधी प्राकृत के कितने तत्व इस से मिलते हैं, देखने की चीज है। यदि मूल तत्त्व एक नहीं मिलते, तो कहना पडे गा कि ‘मागधी प्राकृत या 'मगध' ( अपभ्रंश ) स्वरूपतः किंवा नामतः चिन्त्य हैं । या तो वह ‘मागध प्राकृत' कृत्रिम है, जो ‘मगही' से मेल नहीं खाती और या फिर किसी दूसरे ही प्रदेश की प्राकृत का नाम लोगों ने *मागधी प्राकृत' रख दिया है ! ‘मगही' बोली को कौन कृत्रिम फहे गा ? यह तो जनता के प्रवाह में है। इस से मागधी प्राकृत के तत्व मिलने चाहिए। यानी संज्ञाओं के तथा क्रियाओं के प्रत्यय-विभक्ति आदि रूप में वर्तमान “मगही' तथा 'मागधी प्राकृत' में कोई एकसूत्रता चाहिए । “ो–“सो' की जगह जे-‘से' रूप जरूर मागधी-मगही में एक सूत्र हैं। •