पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६३५

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मारीच से रावण कहता है-- रावण कहे खामोश हो, बक्त नाही, | जैसा बीजिआई वैसा चावसे हैं । कीती हूँ बेअदबी है बौद्दत, | सझा समझ लै इस दी पावसे हैं। *तु' को हूँ है। 'बीज' से 'बीजिई” नामधातु है—जैसा बोया है ! *बहत' का जौहत' है । *किया' ‘दिया' की जगह पंजाबी में फीता’ ‘दीता’ ( कृदन्त फर्सवाच्य ही ) प्रयोग हैं और इनका स्त्रीलिङ्ग ‘क्रीती' दीती। बेअदबी कीती-बेअदबी की' । 'ने' विभक्ति नहीं है-'हूँ बेअदबी कीती । परन्तु सर्वनामों में 'ने' का प्रयोग सर्वत्र मिलता है--- बैठा अहा बटाऊ विच राह अग्गे, सुणे रोवने दी जद अवाझ उसने । उंड के राबन दे सिर ते अन खला, | दिते तरोड़ सारे, साज-साझ उसने । व्रजभाषा की जैसी ही स्थिति 'ने' की यहाँ है। वहाँ भी भैया, दाऊ मोहिं, बहुत खिझायो। दाऊ ने नहीं। परन्तु “चाने कहा बिगायो तेरो में 'ने' है। यहाँ वह कहा बिगायो’ न हो गी । पंजाबी में भी कुछ ऐसा ही है। दोनो ही खड़ी बोली' के पड़ोस की हैं। कुछ असर हो गा ही। 'आवाज' राष्ट्रभाषा में स्त्रीलिङ्ग है--उर्दू में भी; पर पंजाबी में पुल्लिङ्गसुणेश्रा आवाझ उसने । रौवने दो बाझ' । 'रोवने दी नहीं । 'नाक' का नक’ पुल्लिङ्ग और 'आवाज' का 'आवाझ’ रूप भी पुलिंग। मर्दाना सूबा है ! अपनी-अपनी प्रवृत्ति । हिन्दी में पुंप्रचलित ‘चन्द्रमा' शब्द का प्रयोग कविवर पन्त स्त्रीलिङ्ग में करते हैं ! उन की प्रवृत्ति ! व्यक्तित्व प्रदेश का भी होता है । सात-साझ---“साजे-बाज' । तरीड़ दिखें---तोड़ दिए । | वड़ा' की जगह खली' है । 'ल' और 'ड्र' बदलते रहते हैं । “हुड़दंग मैं 'ल' का ‘ड्र' है । होली का दंगा-हुड़दंश' । । इतने उद्धरण पयास हैं । अब आप ही बताइए कि पंजाबी हिन्दी के कितने निकट है ? परन्तु 'का' 'के' 'की' की जगह 'दा' दे दी हैं । यह भेद !