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परिशिष्ट-३

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परिशिष्ट---३ व्याकरण और भाषाविज्ञान व्याकरण और भाषा-विज्ञान परस्पर एक दूसरे से ऐसे संबद्ध विषय हैं। कि एक का विचार करते समय दूसरे की उपस्थिति स्वतः हो ही जाती है । इसी लिए भाषा-विज्ञान के परमाचार्य महर्षि यास्क ने अपने ‘निरुक्त' में। भाषाविज्ञान (निरुक्त ) के साथ-साथ व्याकरण के प्राचार्यों का भी स्मरण बार-बार किया है और उन के मतों का कहीं आश्रय लिया है; कहीं समीक्षण किया है। इसी तरह व्याकरण के ग्रन्थों में यास्क जैसे भाषाविज्ञानी के सिद्धान्त जहाँ-तहाँ उद्धृत हुए हैं—प्रमाण-रूप में उपस्थित किए व्याकरण का जो ग्रन्थ आप के हाथ में है, उस में भी भाषा-विज्ञान का पुट है। भाषा-विज्ञान के आधुनिक ग्रन्थों में भी व्याकरण की चर्चा रहती है। ऐसी स्थिति में, हमें यहाँ यह देख लेना उचित होगा कि आधुनिक भाषा-विज्ञान के हिन्दी ग्रन्थों में हिन्दी-व्याकरण पर जो कुछ लिखा गया है, कुछ विपरीत दिशा में तो नहीं जा रहा है ! इस ग्रन्थ में कुछ हो और इन भाषा-विज्ञान के ग्रन्थों में कुछ और हो, तो भ्रम-सन्देह फैलने को अवकाश रहे गा । हिन्दी के पुराने सभी व्याकरण परीक्षित हो चुके हैं। सन् १९२१ से १९४२ तक पत्र-पत्रिकाओं द्वारा व्याकरणीय भ्रमों का निरसन किया गया । १६४३ में ‘ब्रजभाषा का व्याकरण' प्रकाशित हुआ, जिसके भूमिका-भाग में स्थायी रूप से भ्रम-निवारण कर दिया गया । इस लिए, उस विषय में अब कुछ कहना नहीं है। परन्तु भाषा-विज्ञान के ग्रन्थों में आए हुए व्याकरणीय अंश अवश्य द्रष्टव्य हैं। हमें भाषा-विज्ञान के हिन्दी-ग्रन्थों से बहुत अधिक असन्तोष है--हमारा बहुत अधिक मत-भेद है। परन्तु वह सब इस परिशिष्ट में न दिया जाए गा--दिया ही नहीं जा सकता ! इस के लिए तो एक स्वतंत्र भाषा-विज्ञान का ग्रन्थ लिखा जाना चाहिए। हिन्दी में अभी तक जितने भी भाषाविज्ञान के अन्य प्रकाशित हुए हैं, सब में यः पिष्ट-पेषण ही हैं ! स्वतंत्र मौलिक चिन्तन नजर नहीं आता ! इस परिशिष्ट में हम उन्हीं अंशों के नमूने देंगे, जिन का व्याकरण से संन्नन्ध है।