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विभक्तियों का विकास।

विभक्तियों का विकास' भाषा-विज्ञान के हिन्दी-ग्रन्थों में कैसा समझाया गया है; इस के लिए 'ने' विभक्ति ले लीजिए। हम ने 'ने' विभक्ति का विकास संस्कृत ‘इन’ ( ‘बालकेन’ ) के वर्ण-व्यत्यय से और गुण-सन्धि से बतलाया है। संस्कृत कृदन्त क्रियाओं में जहाँ कर्ता कारक में तृतीया विभक्ति लगती है, वहीं हिन्दी में यह 'ने' विभक्ति लगती है; यह सब पीछे लिखा जा चुका है। परन्तु भाषाविज्ञान के अन्थों में संस्कृत कृण' शब्द से 'ने' की उत्पतिं बताई गई है ! इस गन्थ के पाठक ऐसे बालक नहीं हो सकते कि *इन' से 'ने' बिभक्ति का विकास समझाने के लिए फिर से वही सब कहा जाए और 'फ' से 'ने' का विकास मानने वालों के मत का खण्डन किया जाए ! कोई कहे कि खड़िया से खॉड' की उत्पत्ति है, तो क्या उस के मत कहो खण्डन अप करने बैठे गे ? खड़िया से भी नहीं, कोयले से ! किसी-किसी भाषा-विज्ञानी ने लग्थ्' से 'ने' विभक्ति का विकास माना है ! इसी तरह संबन्ध प्रत्यय 'क' ( राम का’ ) की उत्पत्ति संस्कृत कार्य शब्द से बताई गई है ! 'क' तथा 'कार्य' का कोई अर्थ-विचार भी है ! ऊपरी रूप-रंग भी तो नहीं मिलता ! क्रियाशब्दों का विकास हिन्दी के क्रिया-शब्दों पर और उन के मूल शब्दों ( धातु ) पर भी भाषा-विज्ञान वालों ने मजेदार बातें लिखी हैं ! हिन्दी 'हो' धातु की उत्पत्ति असूसे बतलाई गई हैं ! पूछो, 'असे' को “हो” कैसे हो गया ? ‘भवति-भोदि-होति–होइ' की एक श्रृंखला जरूर है । *व को सम्प्रसारण ( 3 ) और गुण-सन्धि हो कर भव' का ‘भो' और फिर अल्पप्राण ( 'ब्’ } को अवसान । बन गया हो। भोदि के द्’ का भी लोप-हो-होता है। यों भू' से हिन्दी ‘हो' की व्युत्पचि है। परन्तु बड़े लोगों का अपना चिन्तन है ! क्या कहा जाए ! 'अस' से तो हिन्दी की 'इ' धातु हैं—अस्ति–असति-श्रहइ-अद्वै—है । अस्ति' माने 'है' और ‘भूचति' माने होता है । वर्तमान काल का प्रत्यय केवल 'इ' धातु से (इ) होता हैं और यहीं करता’ ‘पढ़ता आदि की तरह होता' के साथ लेग कर