पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६३८

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‘होता है' क्रिया बनाता है। यह सब कुछ पीछे यथाप्रकरण की जा चुक है। ( अस्>) 'इ' धातु से मध्यमपुरुष-बहुवचन में 'हो' क्रियापद जरूर बनता है-“तुम भाषा-विज्ञानी हो' ! पर 'हो' धातु 'अस्’ से हर्गिज नहीं है । “अस्' के विकास ‘ह से भूतकालिक ‘त' प्रत्यय और पुंप्रत्यय का योग हो कर व्रजभाषा में ‘तो’ रूप । 'एक राजा हतो'--एक राजा था । ‘हतो को वहाँ ‘हता' बोलते हैं, जहाँ खड़ी-बोली का क्षेत्र लगती है। कोई-कहीं केवल ‘ता' बोलते हैं-“एक राजा ता, एक रानी ती’। कहीं ‘त लोप कर के "हा बोलते हैं—'एक राजा हा’--एक रानी ही'। इसी उलट-फेर में “हता' का ‘तहा' हो कर “त' से स्वर उड़ गया और तु+हा = था'। “एक राजा था’ ‘एक रानी थी। परन्तु भाषाविज्ञान के ग्रन्थों में इस था क्रिया की विकास' संस्कृत ‘स्था’ धातु से बतलाया गया है ! ‘स्था' का अर्थ है-ठहरना, खड़ा होना, रुकना श्रादि । 'या' का अर्थ है-आसीत्-‘एक राजा आसीत्-‘एक राजा था। अन्तर यह कि “आसीत् तिङन्त है और 'था' कृदन्त है । परन्तु भाषा-विज्ञानवाले कहते हैं कि “स्था का ही सू’ उड़ कर था' है ! कितना सीधा रास्ता बता दिया ! न वह वर्ण-व्यत्यय, न वर्ण-विकार, न पुंप्रत्यय की जरूरत ! गन्ने के रस को पकाना और विविध प्रक्रियाओं में पड़ना बेकार ! खड़िया पीस लो, चीनी तयार ! कुछ भाषा-विज्ञानियों ने ‘स्थित' से 'था' की उत्पत्ति बतलाई है और कुछ कहते हैं कि 'सुन्त' के स्थान पर असन्त' कर के 'अहन्त' >हन्तौ >हतौ>‘था' की श्रृंखला है! 'हतौ' से 'था। और *हतौ’ निकला ‘सन्त' से।! यह ‘सुन्त' कौन सा ? किस अखाड़े का ? भविष्यत् काल की विभक्ति ‘गा’ को विकास संस्कृत गतः' से बतलाया गथा है ! भूत से भविष्यत् निकल पड़ा ! प्रकाश से अन्धकार का उद्गम ! जैसे स्था' से 'या' निकला', उसी तरह ‘गतः' से 'ग' ! बलिहारी ! हिन्दी में भी व्यञ्जनान्त शब्द ! | हम ने इस ग्रन्थ में लिखा है कि हिन्दी के स्वरूप-गठन में ऋ, ङ, ञ, ण, वर्ण तथा विसर्ग नहीं हैं और शब्द के अन्त में तो कोई व्यंजन है ही नुहींसभी त्वरान्त हैं। परन्तु भाषाविज्ञानवालों ने लिखा है कि हिन्दी में